Showing posts with label पुस्तकें. Show all posts
Showing posts with label पुस्तकें. Show all posts

Sunday, March 22, 2015

क्या 21वीं सदी में किसी काम का रह जाएगा इंसान?

युवाल हरारी, हिब्रू यूनिवर्सिटी, यरुसलम.
विज्ञान और टेक्नोलॉजी में हो रही प्रगति के बरक्स इंसानी भविष्य पर एक बेहद दिलचस्प और विचारोत्तेजक लेख पेश है. हिंदी में ऐसे लेखों का सर्वथा अकाल है. लेखक प्रो. युवाल हरारी इतिहास पढ़ाते हैं. उनकी पुस्तक 'शेपियंस: अ ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ़ ह्यूमनकाइंड' इन दिनों धूम मचाए हुए है. उनकी किताब का विषय है मनुष्य का इतिहास जिसमें वे एक जैविक शरीर के रूप में इंसान के इतिहास को देखते हैं और फिर उसकी विविध क्रांतियों मसलन कृषि क्रांति, औद्योगिक क्रांति और पचास साल  पुरानी  सूचना क्रांति के प्रभावों का विवेचन करते हैं. इस बायो-इंजीनियरी  ने  मनुष्योत्तर सायबॉर्ग को जन्म दिया है जो अमर है. लगता है यह मनुष्य को पीछे छोड़ देगा. इस रोचक लेख का अनुवाद किया है आशुतोष उपाध्याय ने. 
..................................................................................

जैसे-जैसे 21वीं सदी अपने पांव पसार रही है, इंसान के सिर पर उसकी कीमत ख़त्म हो जाने का खतरा मंडराने लगा है. क्योंकि बुद्धिमत्ता और चेतना का अटूट गठबंधन टूटने के कगार पर है. अभी हाल तक उच्च मेधा को अति विकसित चेतना का ही एक पहलू समझा जाता था. केवल चेतन जीव ही ऐसे काम करते पाए जाते थे जिनके लिए अच्छे खासे दिमाग की ज़रूरत पड़ती थी- जैसे शतरंज खेलना, कार चलाना, बीमारियों का पता लगा लेना या फिर लेख लिख पाना. मगर आज हम ऐसी नई तरह की अचेतन बुद्धिमत्ता विकसित कर रहे हैं जो इस तरह के कामों को इंसानों से कहीं ज्यादा बेहतर कर सकती है.

इस परिघटना ने एक अनूठे सवाल को जन्म दिया है- दोनों में कौन ज्यादा महत्वपूर्ण है, बुद्धिमत्ता या चेतना? जब तक ये दोनों साथ-साथ चल रहे थे, यह सवाल दार्शनिकों के वक्त बिताने का एक बहाना भर था. लेकिन 21वीं सदी में यह सवाल एक महत्वपूर्ण राजनीतिक और आर्थिक मुद्दा बन गया है. और इस बात को अब खासी तवज्जो दी जा रही है कि कम से कम आर्थिक नज़रिए से बुद्धिमत्ता अपरिहार्य है, जबकि चेतना का कोई ख़ास मोल नहीं.