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Sunday, October 28, 2012

फेरबदल माने, ढाक के तीन पात

केन्द्रीय मंत्रिमंडल का विस्तार हुआ, इतनी बात तो सही साबित हुई, पर न तो इसमें राहुल गांधी दिखाई पड़े और न राहुल फैक्टर। अलबत्ता कांग्रेस की परम्परागत समझ ज़रूर दिखाई पड़ी, सेटिंग्स। आंध्र को सेट करने की कोशिश। वर्तमान को साधे रखने की कोशिश, जोखिम से बचने की कोशिश। कई बार कांग्रेस काफी समझदार लोगों की पार्टी नज़र आती है, फिर अचानक लगता है कि ऐसा कुछ नहीं है। मंत्रिमंडल में बदलाव से जिसने भी जो उम्मीदें लगाईं थीं वे गलत साबित हुईं, सिवा उनके जिन्हें इससे कुछ मिलना था या खोना था।

पार्टी नेतृत्व के सामने यह आखिरी मौका है, जब पार्टी की छवि बनाई जा सकती है। सवाल है कैसी छवि? सामान्य व्यक्ति के जीवन में फर्क नहीं पड़ा तो सारी छवियाँ बेकार हैं। जगनमोहन रेड्डी इसी कांग्रेस संस्कृति से निकले हैं और उन्होंने कांग्रेस को परेशान कर रखा है।  पर अगले लोकसभा चुनाव में बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, हिमाचल, छत्तीसगढ़ और झारखंड का हिन्दी इलाका महत्वपूर्ण साबित होगा। यहाँ कांग्रेस खुद को लगातार अलोकप्रिय कर रही है। इन राज्यों में पार्टी के पास संगठन नहीं है। शेष राज्यों में कहाँ है, पता नहीं। कांग्रेस को दुबारा सत्ता मिली तो टीना फैक्टर (देयर इज़ नो ऑल्टरनेटिव) काम करेगा।

नीति के स्तर पर सरकार खाद्य सुरक्षा कानून, महात्मा गांधी ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना, शिक्षा का अधिकार और राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य कार्यक्रम के अंतर्गत भारी राशि खर्च करने जा रही है, पर कोई दावा नहीं कर सकता कि गरीबों तक वह ठीक ढंग से पहुँच पाएगी। भ्रष्टाचार महत्वपूर्ण मसला है या नहीं, पर सरकार सिटिजन चार्टर और ह्विसिल ब्लोवर कानून पास नहीं करा पाई है।

राहुल गांधी राजनीति में पूरे वेग के साथ हिस्सा लेने की हिम्मत नहीं कर पा रहे हैं। केवल कुर्ता पाजामा पहनने और कुछ गरीबों की कुटिया में भोजन करने से काम नहीं होगा। इससे मीडिया में जगह मिल जाएगी, पर जनता की बेचैनी और बढ़ेगी। पार्टी के पास संगठन नहीं है और न कर्मठ कार्यकर्ता हैं। नेता बनने का फॉर्मूला है परिवार की नज़र में चढ़ना।

हालांकि शपथ की भाषा यह तय नहीं करती कि किसका जनता से जुड़ाव कितना है, पर आप एक नज़र डालें तो नेताओं की शक्लो-सूरत और ज़मीन से जुड़ाव का पता लगता है। गुजरात के दिनशा पटेल, बंगाल की दीपा दासमुंशी, आंध्र के बलराम नायक, अरुणाचल के निनांग इरिंग और राजस्थान के लालचंद कटारिया ने हिन्दी में शपथ ली। बलराम नायक का अटक-अटक कर हिन्दी पढ़ना भी नहीं अखरा। इससे इनका ज़मीन से जुड़ाव दिखाई पड़ता है। दिल्ली के अजय माकन अपेक्षाकृत ज़मीनी नेता हैं, पर उन्होंने और अश्विनी कुमार और मनीष तिवारी ने अंग्रेजी में शपथ ली। अजय माकन हो सकता है कि मणिशंकर अय्यर को बताना चाहते हों कि मुझे अंग्रेज़ी आती है। इनके मुकाबले हरीश रावत और तारिक अनवर का हिन्दी में शपथ लेना उनके जनाधार को भी बताता है। उत्तराखंड में कांग्रेस-विरोधी भी हरीश रावत के सिर्फ इसलिए प्रशंसक हैं, क्योंकि वे जनाधार वाले नेता हैं। पर नेतृत्व इन बातों को नहीं समझता, इससे पार्टी की दशा और दिशा का पता लगता है।

अब देखना यह है कि राहुल गांधी किस रूप में राजनीति में सक्रिय होते हैं। कुछ लोगों को लगता है कि वे मंत्री बने तो बहुत जल्द किसी विवाद में फँस सकते हैं। पता नहीं ऐसा राहुल सोचते हैं या नहीं, पर यह सोच नकारात्मक है। इस सरकार में जयराम रमेश जैसे मंत्री भी हैं, जो वामपंथी नहीं हैं, पर अनेक वामपंथियों से बेहतर और सामान्य कांग्रेसी से ज्यादा साफ-सुथरे हैं। वैचारिक और सामाजिक आधार के लिहाज से कांग्रेस इस देश की सहज पार्टी है, पर उसे चलाने वाले  देश के सहज नेता नहीं है। जनाधार वाले नेता अब न कांग्रेस के पास हैं और न भाजपा के पास हैं।