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Tuesday, December 13, 2022

बांग्लादेश में राजनीतिक हलचलें तेज, क्या शेख हसीना अगला चुनाव जीतेंगी?

ढाका में बीएनपी की रैली

पड़ोसी बांग्लादेश की आंतरिक राजनीति के साथ भारत और बांग्लादेश के रिश्तों की बुनियाद भी टिकी है। ऐसा माना जाता है कि जब तक बांग्लादेश में शेख हसीना और अवामी लीग का शासन है, तब तक भारत के साथ रिश्ते बेहतर बने रहेंगे। अभी तक अवामी लीग का शासन चलता रहा। अब अगले साल वहाँ चुनाव होंगे, जिसमें बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) उसे चुनौती देने के लिए तैयार हो रही है। इस सिलसिले में शनिवार 10 दिसंबर को ढाका में रैली करके बीएनपी ने बिगुल बजा दिया है। रैली की सफलता को लेकर अलग-अलग धारणाएं हैं, पर इतना स्पष्ट है कि अगले साल होने वाले चुनाव के पहले वहाँ की राजनीति ने गरमाना शुरू कर दिया है। बीएनपी का दावा है कि सैकड़ों बाधाओं के बावजूद इतनी बड़ी संख्या में लोगों का जुटना पार्टी के लिए बड़ी उपलब्धि है।

भारत से रिश्ते

बांग्लादेश में अगले साल के अंत में आम चुनाव हैं और उसके तीन-चार महीने बाद भारत में। दोनों चुनावों को ये रिश्ते भी प्रभावित करेंगे. दोनों सरकारें अपनी वापसी के लिए एक-दूसरे की सहायता करना चाहेंगी। कुछ महीने पहले बांग्लादेश के विदेशमंत्री अब्दुल मोमिन ने एक रैली में कहा था कि भारत को कोशिश करनी चाहिए कि शेख हसीना फिर से जीतकर आएं, ताकि इस क्षेत्र में स्थिरता कायम रहे. दो राय नहीं कि शेख हसीना के कारण दोनों देशों के रिश्ते सुधरे हैं और आज दक्षिण एशिया में भारत का सबसे करीबी देश बांग्लादेश है।

पिछले पचास साल से ज्यादा का अनुभव है कि बांग्लादेश जब उदार होता है, तब भारत के करीब होता है. जब कट्टरपंथी होता है, तब भारत-विरोधी। पिछले 13 वर्षों में अवामी लीग की सरकार ने भारत के पूर्वोत्तर में चल रही देश-विरोधी गतिविधियों पर रोक लगाने में काफी मदद की है। अवामी लीग सरकार की सबसे बड़ी उपलब्धि है आर्थिक-विकास, पर पिछले कुछ समय से वैश्विक मंदी का प्रभाव बांग्लादेश पर भी पड़ा है। इसका फायदा भी शेख हसीना-विरोधी उठाना चाहेंगे।

बीएनपी की रैली

बीएनपी ने ढाका की इस रैली से 24 दिसंबर को जन मार्च का आह्वान किया। विश्लेषकों का कहना है कि बीएनपी ने अपनी पिछली गलतियों से सीखा है और लगता है कि वह सरकार के डरे बगैर दबाव बनाने में समर्थ है। बीएनपी के सात सांसदों ने जनसभा में घोषणा की कि वे राष्ट्रीय संसद से इस्तीफे दे रहे हैं। साथ ही उन्होंने संसद को भंग करने, कार्यवाहक सरकार के तहत चुनाव समेत 10 सूत्रीय मांगें भी उठाईं।

चूंकि रैली ने केवल विरोध और जन मार्च का आह्वान किया है, इसलिए सवाल हैं कि पार्टी उस उम्मीद को कितना पूरा कर सकती है। कुछ पर्यवेक्षक मानते हैं कि बीएनपी शांतिपूर्ण रास्ते पर चल रही है, क्योंकि हड़ताल और हड़ताल जैसे प्रमुख कार्यक्रमों का पहले भी राजनीति पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा है। इसके विपरीत, सरकार जिस तरह से विपक्ष को दबाने की कोशिश कर रही है, उसकी अनदेखी कर इस रैली को कर पाना एक बड़ी उपलब्धि है।

Tuesday, December 28, 2021

बांग्लादेश के उदय का ऐतिहासिक महत्व

बांग्लादेश की स्थापना के पचास वर्ष पूरे होने पर तमाम बातें भारतीय उपमहाद्वीप के लोगों के लिए विचारणीय हैं। विभाजन की निरर्थकता या सार्थकता पर वस्तुनिष्ठ तरीके से विचार करने समय है। भारत में धर्मनिरपेक्षता और बांग्लादेश तथा पाकिस्तान में इस्लामिक राज-व्यवस्था को लेकर बहस है। अफगानिस्तान में हाल में हुआ सत्ता-परिवर्तन भी विचारणीय है। भारतीय उपमहाद्वीप में चलने वाली हवाएं अफगानिस्तान पर भी असर डालती हैं। सवाल है कि इस क्षेत्र के लोगों की महत्वाकांक्षाएं क्या हैं? इलाके की राजनीति क्या उन महत्वाकांक्षाओं से मेल खाती है? दुनिया की प्राचीनतम सभ्यताओं में से एक के उत्तराधिकारियों के पास इक्कीसवीं सदी में सपने क्या हैं वगैरह?

विभाजन की निरर्थकता

बांग्लादेश की स्थापना के साथ भारतीय भूखंड के सांप्रदायिक विभाजन की निरर्थकता के सवाल पर जितनी गहरी बहस होनी चाहिए थी, वह नहीं हुई।   विभाजन के बाद पाकिस्तान दो भौगोलिक इकाइयों के रूप में सामने आया था। हालांकि इस्लाम उन्हें जोड़ने वाली मजबूत कड़ी थी, पर सांस्कृतिक रूप से दोनों के बीच फर्क भी था। पाकिस्तानी सत्ता-प्रतिष्ठान शुरू से ही पश्चिम में था। बंगाली मुसलमानों का बहुमत होने के बावजूद पश्चिम की धौंसपट्टी चलती थी।

पाकिस्तान और बांग्लादेश में भी काफी लोग बांग्लादेश की स्थापना को भारत की साजिश मानते हैं। ज़ुल्फिकार अली भुट्टो या शेख मुजीब की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं या ऐसा ही कुछ और। केवल साजिशों और महत्वाकांक्षाओं की भूमिका थी, तो बांग्लादेश 50 साल तक बचा कैसे रहा? बचा ही नहीं रहा, बल्कि आर्थिक और सामाजिक विकास की कसौटी पर वह पाकिस्तान को काफी पीछे छोड़ चुका है, जबकि 1971 तक वह पश्चिमी पाकिस्तान से काफी पीछे था। मोटे तौर पर समझने के लिए 1971 में पाकिस्तान की जीडीपी 10.66 अरब डॉलर और बांग्लादेश की 8.75 अरब डॉलर थी। 2020 में पाकिस्तान की जीडीपी 263.63 और बांग्लादेश की 324.24 अरब डॉलर हो गई। इसके अलावा मानवीय विकास के तमाम मानकों पर बांग्लादेश बेहतर है।

प्रति-विभाजन?

क्या यह प्रति-विभाजन है? विभाजन की सिद्धांततः पराजय 1948 में ही हो गई थी। मुहम्मद अली जिन्ना ने 1948 में ढाका विवि में कहा कि किसी को संदेह नहीं रहना चाहिए कि पाकिस्तान की राष्ट्रभाषा उर्दू होगी और उर्दू के साथ बांग्ला को भी देश की राष्ट्रभाषा बनाने की माँग करने वाले देश के दुश्मन हैं। इस भाषण से बांग्लादेश की नींव उसी दिन पड़ गई थी और यह सब इतिहास के पन्नों में दर्ज है।

Sunday, December 26, 2021

बांग्लादेश के संदर्भ में इंदिरा गांधी को याद करने की जरूरत


बांग्लादेश के पचास वर्ष पूरे होने पर भारतीय भूखंड के विभाजन की याद फिर से ताजा हो रही है। साथ ही उन परिस्थितियों पर फिर से विचार हो रहा है, जिनमें बांग्लादेश की नींव पड़ी। बांग्लादेश में इस साल मुजीब-वर्ष यानी शताब्दी वर्ष मनाया जा रहा है। बांग्लादेश की मुक्ति और स्वतंत्रता संग्राम के 50 वर्ष के साथ दोनों देशों के राजनयिक संबंधों के 50 साल भी पूरे हो रहे हैं। मार्च में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बांग्लादेश की यात्रा पर गए थे और अब राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद वहाँ गए।

इस दौरान देश की पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के नाम का उल्लेख नहीं होने पर बहुत से लोगों ने अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की। वयोवृद्ध नेता कर्ण सिंह ने 17 दिसंबर को कहा कि इंदिरा गांधी के मजबूत और निर्णायक नेतृत्व के बिना बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम को जीता नहीं जा सकता था। विरोधी दलों के नेताओं ने भी इसी किस्म के विचार व्यक्त किए। लोकसभा में कांग्रेस के नेता अधीर रंजन चौधरी ने स्पीकर ओम बिरला को पत्र लिखकर उनके बयान का संदर्भ देते हुए याद दिलाया कि विजय दिवस इंदिरा गांधी के साहसिक और निर्णायक फैसले की वजह से है। उन्होंने यह भी याद दिलाया कि पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने विपक्ष में रहने के बावजूद इंदिरा गांधी की प्रशंसा की थी और उन्हें 1971 की बांग्लादेश की आजादी की लड़ाई के बाद ‘दुर्गा’ का अवतार बताया था।

असाधारण विजय

बांग्लादेश की मुक्ति एक सामान्य लड़ाई नहीं थी। हालात केवल एक देश और समाज की मुक्ति तक सीमित नहीं थे। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद एक और बड़े युद्ध के हालात बन गए थे, जिनमें एक तरफ पाकिस्तान, चीन और अमेरिका खड़े थे और दूसरी तरफ भारत और रूस। छोटे से गलत कदम से बड़ी दुर्घटना हो सकती थी। उस मौके पर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन के नाम जो खुला पत्र लिखा था, उसने भी वैश्विक जनमत को भारत के पक्ष में मोड़ने में भूमिका निभाई और निक्सन जैसे राजनेता को बौना बना दिया। साथ ही सातवें बेड़े के कारण पैदा हुए भय का साहस के साथ मुकाबला किया। उस दौरान अमेरिकी पत्रकारों ने अपने नेतृत्व की इस बात के लिए आलोचना भी की थी कि भारत को रूस के साथ जाने को मजबूर होना पड़ा। इसलिए एक नजर उन परिस्थितियों पर फिर से डालने की जरूरत है।

बांग्लादेश की स्थापना के पीछे की परिस्थितियों पर विचार करते समय उन दिनों भारत और पाकिस्तान दोनों देशों में हुए संसदीय चुनावों के परिणामों पर भी विचार करना चाहिए। भारत में फरवरी 1971 में और उसके करीब दो महीने पहले पाकिस्तान में। पाकिस्तान के फौजी तानाशाह जनरल याह्या खान ने आश्चर्यजनक रूप से राष्ट्रीय असेम्बली के स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने का फैसला किया। उन्हें अनुमान ही नहीं था कि पूर्वी पाकिस्तान इस लोकतांत्रिक-गतिविधि के सहारे पश्चिम को सबक सिखाने का फैसला करके बैठा है। याह्या खान को लगता था कि किसी को बहुमत मिलेगा नहीं, जिससे मेरी सत्ता चलती रहेगी। पर शेख मुजीबुर्रहमान की अवामी लीग को न केवल पूर्वी पाकिस्तान की 99 फीसदी सीटें मिलीं, बल्कि राष्ट्रीय असेम्बली में पूर्ण बहुमत भी मिल गया, पर पश्चिमी पाकिस्तान के सत्ता-प्रतिष्ठान ने उन्हें प्रधानमंत्री पद देने से इनकार कर दिया।

Thursday, December 16, 2021

बांग्लादेश के 50 वर्ष


दूसरे विश्वयुद्ध के बाद बांग्लादेश पहला ऐसा देश था, जो युद्ध के बाद नए देश के रूप में सामने आया था। इस देश के उदय ने भारतीय भूखंड के धार्मिक विभाजन को गलत साबित किया। पूर्वी पाकिस्तान हालांकि मुस्लिम-बहुत इलाका था, पर वह बंगाली था। यह बात शायद आज भी पाकिस्तान के सूत्रधारों को समझ में नहीं आती है। पाकिस्तान के संस्थापक मुहम्मद अली जिन्ना को भी यह बात समझ में नहीं आई थी। उन्होंने 1948 में ढाका विवि में कहा कि किसी को संदेह नहीं रहना चाहिए, पाकिस्तान की राष्ट्रभाषा उर्दू होगी। उन्होंने उर्दू के साथ बांग्ला को भी देश की राष्ट्रभाषा बनाने की माँग करने वालों को  इस भाषण से बांग्लादेश की नींव उसी दिन पड़ गई थी। यह सब अब इतिहास के पन्नों में दर्ज है, पर बांग्लादेश के पचास वर्ष पूरे होने पर भारतीय भूखंड के विभाजन की याद फिर से ताजा हो रही है।

दक्षिण एशिया में विभाजन की कड़वाहट अभी तक कायम है, पर यह एकतरफा और एक-स्तरीय नहीं है। पाकिस्तान का सत्ता-प्रतिष्ठान भारत-विरोधी है, फिर भी वहाँ जनता के कई तबके भारत में अपनापन भी देखते हैं। बांग्लादेश का सत्ता-प्रतिष्ठान भारत-मित्र है, पर कट्टरपंथियों का एक तबका भारत-विरोधी भी है। भारत में भी एक तबका बांग्लादेश के नाम पर भड़कता है। उसकी नाराजगी ‘अवैध-प्रवेश’ को लेकर है या उन भारत-विरोधी गतिविधियों के कारण जिनके पीछे सांप्रदायिक कट्टरपंथी हैं। पर भारतीय राजनीति, मीडिया और अकादमिक जगत में बांग्लादेश के प्रति आपको कड़वाहट नहीं मिलेगी। शायद इन्हीं वजहों से पड़ोसी देशों में भारत के सबसे अच्छे रिश्ते बांग्लादेश के साथ हैं।

पचास साल का अनुभव है कि बांग्लादेश जब उदार होता है, तब भारत के करीब होता है। जब कट्टरपंथी होता है, तब भारत-विरोधी। शेख हसीना के नेतृत्व में अवामी लीग की सरकार के साथ भारत के अच्छे रिश्तों की वजह है 1971 की वह ‘विजय’ जिसे दोनों देश मिलकर मनाते हैं। वही विजय कट्टरपंथियों के गले की फाँस है। पिछले 12 वर्षों में अवामी लीग की सरकार ने भारत के पूर्वोत्तर में चल रही देश-विरोधी गतिविधियों पर रोक लगाने में काफी मदद की है। भारत ने भी शेख हसीना के खिलाफ हो रही साजिशों को उजागर करने और उन्हें रोकने में मदद की है। 

Thursday, May 13, 2021

बांग्लादेश का चीन को जवाब

बांग्लादेश ने क्वॉड को लेकर चीन की चिंता का न केवल जवाब दिया है, बल्कि यह भी कहा है कि हमें विदेश-नीति को लेकर रास्ता न दिखाएं। हम खुद रास्ते देख लेंगे। के विदेश मंत्री डॉ अब्दुल मोमिन ने मंगलवार को कहा कि बांग्लादेश की विदेश नीति गुट-निरपेक्ष और संतुलनकारी सिद्धांत पर आधारित है और हम इसी के हिसाब से आगे बढ़ते हैं। बांग्लादेश के अखबार दे डेली स्टार ने भी अपने विदेशमंत्री के विचारों से मिलते-जुलते विचार व्यक्त किए हैं।

डॉ मोमिन ने मंगलवार को पत्रकारों के सवालों का जवाब देते हुए कहा, ''हम स्वतंत्र और संप्रभु राष्ट्र हैं। हम अपनी विदेश नीति पर ख़ुद फ़ैसला करेंगे। लेकिन हाँ, कोई देश अपनी स्थिति स्पष्ट कर सकता है। अगला क्या कहता है हम इसका आदर करते हैं लेकिन हम चीन से ऐसे व्यवहार की उम्मीद नहीं करते हैं।'' उन्होंने इस बयान को खेदजनक बताया है।

डॉ मोमिन ने कहा, ''स्वाभाविक रूप से चीनी राजदूत अपने देश का प्रतिनिधित्व करते हैं। वे जो चाहते हैं, उसे कह सकते हैं। शायद वे नहीं चाहते हैं कि हम क्वॉड में शामिल हों। लेकिन हमें किसी ने क्वॉड में शामिल होने के लिए संपर्क नहीं किया है। चीन की यह टिप्पणी असमय (एडवांस में) आ गई है।''

चीनी बयान को लेकर केवल सरकार ने ही प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की है, बल्कि वहाँ के विदेश-नीति विशेषज्ञों और मीडिया ने भी कहा है कि हमारा देश अपनी विदेश-नीति की दिशा खुद तय करेगा। इसके लिए किसी को बाहर से कुछ कहने की जरूरत नहीं है। हाँ, हम सभी की बात सुनेंगे, पर जो करना है वह खुद तय करेंगे।

राजदूत का बयान

गत सोमवार को, बांग्लादेश में चीनी राजदूत ली जिमिंग ने ढाका में कहा, बांग्लादेश किसी भी तरह से क्वॉड में शामिल हुआ, तो चीन के साथ द्विपक्षीय संबंध गंभीर रूप से क्षतिग्रस्त हो जाएंगे। जिमिंग ने कहा, हम नहीं चाहते कि बांग्लादेश इस गठबंधन में भाग ले।

Thursday, April 1, 2021

बांग्लादेश में भारत-विरोधी हिंसा


प्रधानमंत्री की बांग्लादेश  यात्रा के दौरान हिफ़ाज़त-ए-इस्लाम संगठन के नेतृत्व में हुई हिंसा ने ध्यान खींचा है। यह संगठन सन 2010 में खड़ा हुआ था और परोक्ष रूप से प्रतिबंधित संगठन जमाते-इस्लामी के एजेंडा को चलाता है।  इस संगठन से जुड़े लोगों ने न केवल सरकारी सम्पत्ति, रेलवे स्टेशन, रेल लाइन, ट्रेन, थानों और सरकारी भवनों को नुकसान पहुँचाया गया। हिंदू-परिवारों पर और मंदिरों पर भी हमले बोले गए। खुफिया रिपोर्ट यह भी बताती हैं कि जमात, हिफाजत और विपक्षी बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी शेख हसीना की सरकार को गिराने की साजिश रच रहे हैं।

हिंसा की शुरुआत ढाका के बैतूल मुकर्रम इलाके से हुई थी, पर सबसे ज्यादा मौतें ब्राह्मणबरिया जिले में हुईं। इसके अलावा चटगाँव में भी हिंसा हुई, जहाँ हिफ़ाज़त-ए-इस्लाम का मुख्यालय है। ब्राह्मणबरिया प्रशासन, पत्रकारों और चश्मदीदों के मुताबिक़ हिंसा सुबह 11 बजे से शुरू हुई थी। ज़िला मुख्यालय, नगर पालिका परिषद, केंद्रीय पुस्तकालय, नगरपालिका सभागार, भूमि कार्यालय और प्रेस क्लब समेत टी-ए रोड के दोनों तरफ स्थित अनेक सरकारी इमारतों को आग लगा दी गई थी।

Friday, March 26, 2021

राजनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बांग्लादेश यात्रा

 


प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बांग्लादेश-यात्रा के तीन बड़े निहितार्थ हैं। पहला है, भारत-बांग्लादेश रिश्तों का महत्व। दूसरे, बदलती वैश्विक परिस्थितियों के व्यापक परिप्रेक्ष्य में दक्षिण एशिया की भूमिका और तीसरे पश्चिम बंगाल में हो रहे चुनाव में इस यात्रा की भूमिका। इस यात्रा का इसलिए भी प्रतीकात्मक महत्व है कि कोविड-19 के कारण पिछले एक साल से विदेश-यात्राएं न करने वाले प्रधानमंत्री की पहली विदेश-यात्रा का गंतव्य बांग्लादेश है।

यह सिर्फ संयोग नहीं है कि बांग्लादेश का स्वतंत्रता दिवस 26 मार्च उस ‘पाकिस्तान-दिवस’ 23 मार्च के ठीक तीन दिन बाद पड़ता है, जिसके साथ भारत के ही नहीं बांग्लादेश के कड़वे अनुभव जुड़े हुए हैं। हमें यह भी नहीं भुलाना चाहिए कि बांग्लादेश ने अपने राष्ट्रगान के रूप में रवीन्द्रनाथ ठाकुर के गीत को चुना था।

हालांकि बांग्लादेश का ध्वज 23 मार्च, 1971 को ही फहरा दिया था, पर बंगबंधु मुजीबुर्रहमान ने स्वतंत्रता की घोषणा 26 मार्च की मध्यरात्रि को की थी। बांग्लादेश मुक्ति का वह संग्राम करीब नौ महीने तक चला और भारतीय सेना के हस्तक्षेप के बाद अंततः 16 दिसम्बर, 1971 को पाकिस्तानी सेना के आत्म समर्पण के साथ उस युद्ध का समापन हुआ। बांग्लादेश की स्वतंत्रता पर भारत में वैसा ही जश्न मना था जैसा कोई देश अपने स्वतंत्रता दिवस पर मनाता है। देश के कई राज्यों की विधानसभाओं ने उस मौके पर बांग्लादेश की स्वतंत्रता के समर्थन में प्रस्‍ताव पास किए थे।

विस्तार से पढ़ें पाञ्चजन्य में


Monday, August 10, 2020

बांग्लादेश पर भी चीन का सम्मोहिनी जादू!

 

नवम्बर 2014 में काठमांडू में दक्षेस शिखर सम्मेलन जब हुआ था, एक खबर हवा में थी कि नेपाल सरकार चीन को भी इस संगठन का सदस्य बनाना चाहती है। सम्मेलन के दौरान यह बात भारतीय मीडिया में भी चर्चा का विषय बनी थी। यों चीन 2005 से दक्षेस का पर्यवेक्षक देश है, और शायद वह भी इस इलाके में अपनी ज्यादा बड़ी भूमिका चाहता है। काठमांडू के बाद दक्षेस का शिखर सम्मेलन पाकिस्तान में होना था, वह नहीं हुआ और फिलहाल यह संगठन एकदम खामोश है। भारत-पाकिस्तान रिश्तों की कड़वाहट इस खामोशी को बढ़ा रही है।

इस दौरान भारत ने बिम्स्टेक जैसे वैकल्पिक क्षेत्रीय संगठनों में अपनी भागीदारी बढ़ाई और ‘माइनस पाकिस्तान’ नीति की दिशा में कदम बढ़ाए। पर चीन के साथ अपने रिश्ते बनाकर रखे थे। लद्दाख में घुसपैठ की घटनाओं के बाद हालात तेजी से बदले हैं। पाकिस्तान तो पहले से था ही अब नेपाल भी खुलकर बोल रहा है। पिछले पखवाडे की कुछ घटनाओं से लगता है कि बांग्लादेश को भी भारत-विरोधी मोर्चे का हिस्सा बनाने की कोशिशें हो रही हैं। बावजूद इसके कि डिप्लोमैटिक गणित बांग्लादेश को पूरी तरह चीनी खेमे में जाने से रोकता है। पर यह भी लगता है कि बांग्लादेश सरकार ने भारत से सायास दूरी बनाई है।

Thursday, December 4, 2014

बांग्लादेश पर यू-टर्न एकदम उचित है


मोदी सरकार केवल आर्थिक उदारीकरण के मामले में ही नहीं विदेश नीति और रक्षा नीति में भी पिछली यूपीए सरकार के कदमों पर चल रही है. फर्क केवल तौर-तरीकों का है. व्यक्तिगत रूप से नरेंद्र मोदी का अंदाज़ मुकाबले मनमोहन सिंह के ज्यादा आक्रामक है और ज्यादा खुलकर है. खासतौर से विदेश नीति के मामले में. इधर कांग्रेस ने '6 महीने पार, यू-टर्न सरकार' शीर्षक से जो पुस्तिका जारी की है उसमें सरकार की 22 'पलटियों' का जिक्र किया गया है. इनमें विदेश नीति से जुड़े दो मसले महत्वपूर्ण हैं. पहला सिविल न्यूक्लियर डैमेज एक्ट जिसे लेकर भाजपा ने खूब हंगामा किया गया था. अब मोदी जी इसे नरम करना चाहते हैं ताकि नाभिकीय तकनीक लाने में अड़चनें खड़ी न हों.

Monday, March 4, 2013

बांग्लादेश का एक और मुक्ति संग्राम


बांग्लादेश में जिस वक्त हिंसा का दौर चल रहा है हमारे राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी की यात्रा माने रखती है। पर बांग्ला विपक्ष की नेता खालिदा ज़िया ने प्रणव मुखर्जी से मुलाकात को रद्द करके इस आंदोलन को नया रूप दे दिया है। देश में एक ओर जमात-ए-इस्लामी का आंदोलन चल रहा है, वहीं पिछले तीन हफ्ते से ढाका के शाहबाग चौक में धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवाद के समर्थक जमा हैं। इस साल के अंत में बांग्लादेश में चुनाव भी होने हैं। शायद इस देश में स्थिरता लाने के पहले इस प्रकार के आंदोलन अनिवार्य हैं। 
भारत के लिए बांग्लादेश प्रतिष्ठा का प्रश्न रहा है। इस देश का जन्म भाषा, संस्कृति, धर्म और राष्ट्रवाद के कुछ बुनियादी सवालों के साथ हुआ था। इन सारे सवालों का रिश्ता भारतीय इतिहास और संस्कृति से है। इन सवालों के जवाब आज भी पूरी तरह नहीं मिले हैं। पश्चिम में पाकिस्तान और पूर्व में बांग्लादेश भारत के अंतर्विरोधों के प्रतीक हैं। संयोग है तीनों देश इस साल चुनाव की देहलीज पर हैं। पाकिस्तान में अगले दो महीने और भारत और बांग्लादेश में अगला एक साल लोकतंत्र की परीक्षा का साल है। इस दौरान इस इलाके की जनता को तय करना है कि उसे आधुनिकता, विकास और संस्कृति का कैसा समन्वय चाहिए। पर बांग्लादेश की हिंसा अलग से हमारा ध्यान खींचती है।
जमात-ए-इस्लामी के नेता दिलावर हुसैन सईदी को मौत की सज़ा सुनाए जाने के बाद बांग्लादेश के अलग-अलग इलाकों में दंगे भड़के हैं। अभी तक बांग्लादेश नेशनल पार्टी ने इस मामले में पहल नहीं की थी, पर शुक्रवार को उसकी नेता खालिदा जिया ने सरकार पर नरसंहार का आरोप लगाकर इसे राजनीतिक रंग दे दिया है। देश के 15 ज़िले हिंसा से प्रभावित हैं। कई शहरों में सत्तारूढ़ अवामी लीग और जमात-ए-इस्लामी कार्यकर्ताओं के बीच टकराव हुए हैं। सन 1971 के बाद से देश में यह सबसे बड़ी हिंसा है। नेआखाली के बेगमगंज में मंदिरों और हिंदू परिवारों पर हमले हुए हैं। जमात-ए-इस्लामी और उसकी छात्र शाखा इस्लामी छात्र शिविर ने मंदिरों को ही नहीं मस्जिदों को भी निशाना बनाया है। बांग्लादेश की शाही मस्जिद कहलाने वाली बैतुल मुकर्रम मस्जिद में कट्टरपंथियों ने तोड़फोड़ की है। यह हिंसा लगभग एक महीने से चल रही है। और इस कट्टरपंथी हिंसा के जवाब में पिछले एक महीने से धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवादी नौजवानों का आंदोलन भी चल रहा है। यह आंदोलन भी देश भर में फैल गया है। देखना यह है कि क्या बांग्लादेश आधुनिकतावाद को अपनी राजनीतिक संस्कृति का हिस्सा बना पाएगा।