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Monday, January 29, 2024

गणतांत्रिक-व्यवस्था और ‘लोकतंत्र की जननी’ भारत

साँची के स्तूप में अंकित मल्ल महाजनपद की राजधानी कुशीनगर। इतिहासकार मानते हैं कि गौतम बुद्ध के समय में मल्ल क्षेत्र में दुनिया की पहली गणतांत्रिक व्यवस्था थी

इस साल गणतंत्र दिवस परेड में देश की सांस्कृतिक विरासत और विविधता को एक नए रूप में पेश किया गया. परेड की मुख्य थीम थी, विकसित भारतऔर भारत-लोकतंत्र की मातृका. यह परेड महिला केंद्रित भी थी. 

पहली बार इस परेड के आगे सैनिक बैंड के बजाय 100 महिला कलाकार भारतीय वाद्ययंत्रों के संगीत की खुशबू बिखेरती हुई चल रही थीं और शेष परेड उनके पीछे थी. 

इसके पहले सैनिक टुकड़ियों का नेतृत्व करती महिला अधिकारी आपने देखी हैं, पर इसबार तीनों सेनाओं की 144 महिला कर्मियों की मिली जुली टुकड़ी भी इस परेड में थी.

लोकतंत्र की जननी

यह परेड भारत को 'लोकतंत्र की जननी' के रूप में प्रदर्शित करने का प्रतीक बनेगी. लोकतंत्र अपेक्षाकृत आधुनिक विचार है, और उसका काफी श्रेय पश्चिमी समाज के दिया जाता है. हालांकि उसके विकास में उन समाजों की भी भूमिका है, जो अतीत में उन मूल्यों से जुड़े थे, जो आज लोकतंत्र की बुनियाद हैं.

हम गर्व से कहते हैं कि दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र भारत में है. हर पाँच साल में होने वाला आम चुनाव दुनिया की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक गतिविधि है. चुनावों की निरंतरता और सत्ता के निर्बाध-हस्तांतरण ने हमारी सफलता की कहानी भी लिखी है.

Sunday, July 17, 2022

भारत के उपराष्ट्रपति की भूमिका

जगदीप धनखड़

उपराष्ट्रपति पद के लिए भारतीय जनता पार्टी के प्रत्याशी के रूप में जगदीप धनखड़ का नाम सामने आने के बाद दो तरह की बातें सामने आई हैं। एक, धनखड़ से जुड़ी और दूसरी देश के उपराष्ट्रपति की भूमिका को लेकर। हालांकि राष्ट्रपति की तुलना में उपराष्ट्रपति पद छोटा है, पर राजनीतिक-प्रशासनिक जीवन में उसकी भूमिका ज्यादा बड़ी है, बल्कि संसदीय प्रणाली में भारत के उपराष्ट्रपति का पद अपने आप में अनोखा है। ब्रिटिश संसदीय प्रणाली में ऐसा सम्भव ही नहीं है, क्योंकि वहाँ राजा के बाद कोई उप-राजा नहीं होता। 

राष्ट्रपति की अनुपस्थिति में उपराष्ट्रपति उसकी भूमिका निभाता है। राष्ट्रपति की भूमिका कार्यपालिका-प्रमुख तक सीमित है, जबकि उपराष्ट्रपति की भूमिका विधायिका के साथ है। वह राज्यसभा का पदेन अध्यक्ष है। भारत के उपराष्ट्रपति की तुलना अमेरिकी उपराष्ट्रपति से की जा सकती है, जो सीनेट का अध्यक्ष भी होता है। अमेरिका में सीनेट राज्यों का प्रतिनिधि सदन है और भारत में भी राज्यसभा राज्यों का प्रतिनिधि सदन है। प्रतिनिधित्व के मामले में अमेरिकी सीनेट का स्वरूप वही है, जैसा बताया गया है, जबकि राज्यसभा का स्वरूप धीरे-धीरे बदल गया है।

देश के वर्तमान उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू का कार्यकाल 10 अगस्त को पूरा हो रहा है। उसके पहले 6 अगस्त को उपराष्ट्रपति पद का चुनाव होगा। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 63 में कहा गया है, भारत का एक उपराष्ट्रपति होगा। अनुच्छेद 64 में कहा गया है कि उपराष्ट्रपति राज्यसभा का पदेन सभापति होगा, परन्तु किसी अवधि के दौरान उपराष्ट्रपति, अनुच्छेद 65 के अधीन राष्ट्रपति के रूप में कार्य करता है, उस अवधि के दौरान वह राज्यसभा के सभापति के पद के कर्तव्यों का पालन नहीं करेगा और वह अनुच्छेद 97 के अधीन राज्यसभा के सभापति को संदेय वेतन या भत्ते का हकदार नहीं होगा।

संविधान सभा में उपराष्ट्रपति पद से जुड़े उपबंधों को स्वीकार किए जाने के बाद 29, दिसम्बर 1948 को संविधान की दस्तावेज (ड्राफ्टिंग) समिति के अध्यक्ष भीमराव आम्बेडकर ने इस पद के व्यावहारिक स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहा कि हालांकि संविधान में उपराष्ट्रपति पद का उल्लेख है, पर वस्तुतः वह राज्यसभा का सभापति है। दूसरे शब्दों में वह लोकसभा अध्यक्ष का समतुल्य है।

इस पद के अतिरिक्त वह किसी कारण से राष्ट्रपति पद के रिक्त हो जाने पर राष्ट्रपति पद पर कार्य करेगा। अनुच्छेद 65(1) के अनुसार, राष्ट्रपति की मृत्यु, पदत्याग या पद से हटाए जाने या अन्य कारण से उसके पद में हुई रिक्ति की दशा में उपराष्ट्रपति उस तारीख तक राष्ट्रपति के रूप में कार्य करेगा, जिस तारीख को ऐसी रिक्ति को भरने के लिए इस अध्याय के उपबंधों के अनुसार निर्वाचित नया राष्ट्रपति अपना पद ग्रहण करता है।

अनुच्छेद 65(2) के अनुसार, जब राष्ट्रपति अनुपस्थिति, बीमारी  किसी अन्य कारण से अपने कर्तव्यों के निर्वहन में असमर्थ है, तब उपराष्ट्रपति उस तारीख तक उसके कर्तव्यों का निर्वहन करेगा, जिस तारीख क राष्ट्रपति अपने कर्तव्यों को फिर से संभालता है।

कोई भी नागरिक जिसकी आयु कम से कम 35 वर्ष है और किसी राज्य या केंद्र शासित क्षेत्र में पंजीकृत मतदाता है, इस पद के लिए प्रत्याशी बन सकता है। इसके लिए उसके नाम का प्रस्ताव कम से कम 20 सांसद करें और 20 सांसद उसके नाम का समर्थन करें। अनुच्छेद 66(2) के अनुसार उपराष्ट्रपति संसद के किसी सदन का या किसी राज्य के विधानमंडल के किसी सदन का सदस्य नहीं होगा। यदि संसद के किसी सदन का या किसी राज्य के विधानमंडल के किसी सदन का कोई सदस्य उपराष्ट्रपति निर्वाचित हो जाता है, तो यह समझा जाएगा कि उसने उस सदन में अपना स्थान उपराष्ट्रपति के रूप में अपने पद-ग्रहण की तारीख से रिक्त कर दिया है।

Sunday, February 20, 2022

लोकतांत्रिक-महोत्सव बनाम चुनावी-हथकंडे


पाँच राज्यों के चुनाव अंतिम दौर में हैं। पिछले 75 वर्ष में राजनीति हमारी राष्ट्रीय संस्कृति बन चुकी है और चुनाव उसके महोत्सव। स्वतंत्र चुनाव-व्यवस्था हमारी उल्लेखनीय उपलब्धि है, पर
चुनावी हथकंडेइस उपलब्धि पर पानी फेरते हैं। हाल में सुप्रीमकोर्ट में याचिका दायर करके अनुरोध किया गया है कि निर्वाचन आयोग को उन दलों का पंजीकरण रद्द करने का निर्देश दें, जो चुनाव के पहले सार्वजनिक धन से, विवेकहीन तोहफे देने का वायदा करते हैं या बाँटते हैं। याचिका में कहा गया है कि वोट पाने के लिए के लिए इस तरह के तोहफों पर पूरी तरह पाबंदी लगनी चाहिए।

वायदों की बौछार

इन चुनावों से पहले घोषणापत्रों और चुनाव सभाओं में लोकलुभावन तोहफों के वायदों की भरमार है। कोई 300 यूनिट बिजली मुफ्त में दे रहा है और कोई 400 यूनिट, युवाओं को लैपटॉप से लेकर स्कूटी तक देने के वायदे हैं। किसानों को कर्जे माफ करने की घोषणाएं हैं, तमिलनाडु में जैसी अम्मा कैंटीनें खुली थीं, वैसी ही सस्ते भोजन की कैंटीनें और सस्ते किराना स्टोर खोलने का वायदा है। कोई पाँच लाख नए रोजगार देने का वायदा कर रहा है, तो दूसरा बीस लाख। रोजगार के अलावा, बेरोजगारी भत्ता, पेंशन योजना, कन्याधन, बसों में मुफ्त यात्रा जैसे वायदे हैं। एक नेता ने कहा कि हमारी सरकार आई, तो मोटर साइकिल पर तीन सवारी ले जाने वालों का चालान नहीं होगा।

सस्ता अनाज

वायदों के व्यावहारिक-पक्ष पर कोई ध्यान नहीं देता। द्रमुक के संस्थापक सीएन अन्नादुरै ने 1967 में वायदा किया था कि 1 रुपये में साढ़े चार किलो चावल दिया जाएगा। वे अपने वायदे से मुकर गए, क्योंकि उन्हें समझ में आ गया कि इससे राज्य पर भारी बोझ पड़ेगा। नब्बे के दशक में आंध्र में एनटी रामाराव ने दो रुपए किलो चावल देने का वादा किया। वे जीत गए, पर चुनाव के बाद वहाँ आठ रुपए किलो चावल बिका, पर दक्षिण भारत में तोहफों की राजनीति का एक नया दरवाजा खुल चुका था। सस्ते अनाज के वायदे के पीछे जन-कल्याण की भावना समझ में आती है, पर वायदों का पिटारा खुला तो खुलता ही चला गया।

रंगीन टीवी

सन 2006 में द्रमुक के एम करुणानिधि ने रंगीन टीवी देने का वायदा किया और चुनाव जीता। इसे लेकर सुब्रमण्यम बालाजी बनाम तमिलनाडु राज्य मामला हाईकोर्ट से होता हुआ सुप्रीम कोर्ट तक आया था, जिसपर 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि चुनावी घोषणा पत्र में किए वायदों को भ्रष्ट-आचरण नहीं माना जा सकता। तमिलनाडु में लैपटॉप, गैस के चूल्हे और टीवी से लेकर मंगलसूत्र तक देने के वायदे चुनाव में होते हैं। लड़कियों की शादी के समय रुपये दिए जाते हैं। चुनावी वायदे भ्रष्ट आचरण हैं या नहीं, यह विषय एक अरसे से चर्चा का विषय है। अब इसे एकबार फिर से सुप्रीम कोर्ट में उठाया गया है। पिछले साल किसी दूसरे विषय पर जनहित याचिका पर विचार करते हुए मद्रास हाईकोर्ट ने टिप्पणी की थी कि मुफ्त की चीजों ने तमिलनाडु के लोगों को आलसी बना दिया है।

पद और मर्यादा

इस चुनाव के दौरान और उसके पहले भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर अपने पद पर रहते हुए राजनीतिक बयान देने के आरोप लगे हैं। संसद के बजट अधिवेशन में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर बहस का जवाब देते हुए प्रधानमंत्री ने संसद के दोनों सदनों में कांग्रेस और नेहरू का नाम कई बार लिया। इसपर कांग्रेस पार्टी की ओर से कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त की गई। राज्यसभा में तो उनके बोलने के बाद कांग्रेस सांसदों ने वॉकआउट कर दिया। विधानसभा चुनाव करीब होने के कारण इस वक्तव्य के राजनीतिक निहितार्थ स्पष्ट हैं। पर क्या संसदीय-कर्म को राजनीति से अलग किया जा सकता है? राजनीतिक-कर्म की मर्यादा रेखा होनी चाहिए, पर उसे तय कौन करेगा? राजनीति संसद से सड़क तक जाती है, पर संसद और सड़क के वक्तव्य एक जैसे नहीं हो सकते।

Thursday, August 12, 2021

संसदीय कर्म का ह्रास, जिम्मेदार कौन?


इस सप्ताह जिस मॉनसून-सत्र का समापन हुआ है, उसे पिछले दो दशक में लोकसभा के तीसरे सबसे कम और राज्यसभा में आठवें सबसे कम उत्पादक सत्र के रूप में याद किया जाएगा। संसदीय-कर्म के इस विचलन और विद्रूप के पीछे सरकार और विरोधी-दलों दोनों को जिम्मेदार माना जाना चाहिए। यानी मोटे तौर पर यह भारतीय-राजनीति का विद्रूप है, जो अक्सर दिखाई पड़ता है। सत्र समापन के बाद दोनों पक्षों के राजनेताओं का मुस्कराते हुए नजर आना क्या कहता है?

Tuesday, January 12, 2021

लोकतंत्र बनाम आर्थिक सुधार

 


भारत में हाल के हफ्तों में लोकतंत्र एवं सख्त आर्थिक सुधारों के बारे में एक बड़ी बहस ने जन्म लिया है। वित्त के क्षेत्र में सुधारों का मुख्य मार्ग लोकतंत्र की जड़ें गहरी होने से संबद्ध है। दुनिया की दूसरी जगहों, सुधारों के मामले में भारत के शुरुआती अनुभव और वित्तीय आर्थिक नीति के भावी सफर के बारे में भी ऐसा ही देखा गया है। लोकतंत्र का सार यानी सत्ता का प्रसार एवं कानून का शासन बाजार अर्थव्यवस्था के फलने-फूलने के लिए अनुकूल हालात पैदा करते हैं और इसमें वित्त केंद्रीय अहमियत रखता है।

नीति आयोग के मुख्य कार्याधिकारी अमिताभ कांत ने कथित तौर पर कहा है कि 'सख्त' सुधार कर पाना भारतीय संदर्भ में काफी मुश्किल है क्योंकि 'हमारे यहां कुछ ज्यादा ही लोकतंत्र है' लेकिन सरकार ने खनन, श्रम एवं कृषि जैसे क्षेत्रों में ऐसे सुधारों को आगे बढ़ाने के लिए 'साहस' एवं 'संकल्प' दिखाया है। इस बयान ने एक तूफान खड़ा कर दिया और तमाम आलोचक भारतीय लोकतंत्र के बचाव में आ खड़े हुए जिसके बाद अमिताभ कांत को 'द इंडियन एक्सप्रेस' में लेख लिखकर यह सफाई देनी पड़ी कि उन्हें गलत समझा गया है।

चुनावों के माध्यम से सत्ता के शांतिपूर्ण हस्तांतरण की अवधारणा हमारे दिमाग में गहरी जमी हुई है लेकिन लोकतंत्र निर्वाचित शासक का फैसला करने वाले चुनाव से कहीं अधिक होता है। लोकतंत्र का सार सत्ता के फैलाव, राज्य की सत्ता के मनमाने इस्तेमाल के नियंत्रण और विधि के शासन की राह में राज्य सत्ता को समाहित करने में है। विधि के शासन के तहत निजी व्यक्ति एवं आर्थिक एजेंट इस पर सुरक्षित महसूस करते हैं कि राज्य की बाध्यकारी सत्ता को अप्रत्याशित, नियम-आधारित तरीके एवं निष्पक्ष ढंग से लागू किया जाएगा। इससे निर्माण फर्मों के निर्माण एवं व्यक्तिगत संपत्ति के सृजन में निवेश को बढ़ावा मिलता है। इस तरह लोकतंत्र के अभ्युदय और दशकों की मेहनत से अपनी फर्म खड़ा करने एवं अपनी संपत्ति को देश के भीतर ही बनाए रखने के लिए निजी क्षेत्र के प्रोत्साहन के बीच काफी गहरा संबंध है।

बिजनेस स्टैंडर्ड में पढ़ें केपी कृष्णन का पूरा आलेख

Thursday, August 15, 2019

हमारी आजादी पर हमले करती ‘आजादी’!


इस साल स्वतंत्रता दिवस ऐसे मौके पर मनाया जा रहा है, जब कश्मीर पर पूरी दुनिया की निगाहें हैं. स्वतंत्रता के बाद कई मायनों में यह हमारी व्यवस्था की सबसे बड़ी परीक्षा है. आजादी के दो महीने बाद ही पाकिस्तानी सेना ने कबायलियों की मदद से कश्मीर पर हमला बोला था. वह लड़ाई तब से लगातार चल रही है. तकरीबन 72 साल बाद भारत ने कश्मीर में एक निर्णायक कार्रवाई की है. क्या हम इस युद्ध को उसकी तार्किक परिणति तक पहुँचाने में कामयाब होंगे?
तमाम विफलताओं के बावजूद भारत की ताकत है उसका लोकतंत्र. सन 1947 में भारत का एकीकरण इसलिए ज्यादा दिक्कत तलब नहीं हुआ, क्योंकि भारत एक अवधारणा के रूप में देश के लोगों के मन में पहले से मौजूद था. इस नई मनोकामना की धुरी पर है हमारा लोकतंत्र. पर यह निर्गुण लोकतंत्र नहीं है. इसके कुछ सामाजिक लक्ष्य हैं. स्वतंत्र भारत ने अपने नागरिकों को तीन महत्वपूर्ण लक्ष्य पूरे करने का मौका दिया है. ये लक्ष्य हैं राष्ट्रीय एकता, सामाजिक न्याय और गरीबी का उन्मूलन.
भारतीय राष्ट्र-राज्य अभी विकसित हो ही रहा है. कई तरह के अंतर्विरोध हमारे सामने आ रहे हैं और उनका समाधान भी हमारी व्यवस्था को करना है. कश्मीर भी एक अंतर्विरोध और विडंबना है. उसकी बड़ी वजह है पाकिस्तान, जिसका वजूद ही भारत-विरोध की मूल-संकल्पना पर टिका है. बहरहाल कश्मीर के अंतर्विरोध हमारे सामने हैं. घाटी का समूचा क्षेत्र इन दिनों प्रतिबंधों की छाया में है. कोई नहीं चाहता कि वहाँ प्रतिबंध हों, पर क्या हम जानते हैं कि अनुच्छेद 370 के फैसले के बाद वहाँ सारी व्यवस्थाएं सामान्य नहीं रह सकती थीं.

Saturday, April 27, 2019

‘सौ में नब्बे बेईमान’, फिर भी ‘वह सुबह तो आएगी’


गुरुवार की रात मीडियाकर्मी करन थापर अपने एक शो में कुछ लोगों के साथ बैठे नरेन्द्र मोदी और देश के चुनाव आयोग को कोस रहे थे। मोदी ने वर्धा में कहा कि कांग्रेस ने हिन्दुओं का अपमान किया है, उसे सबक सिखाना होगा। चुनाव आयोग ने तमाम नेताओं के बयानों पर कार्रवाई की है, मोदी के बयान पर नहीं की। चुनाव आयोग मोदी सरकार से दब रहा है। एक गोष्ठी में कहा जा रहा था, चुनाव में जनता के मुद्दे ही गायब हैं। पहली बार गायब हुए क्या? यह बात हर चुनाव में कही जाती है।
हरेक चुनाव के दौरान हमें लगता है कि लोकतंत्र का स्तर गिर रहा है। नैतिकता समाप्त होती जा रही है। यही बात हमने बीस बरस पहले भी कही थी। तब हमें लगता था कि उसके बीस बरस पहले की राजनीति उदात्त, मूल्यबद्ध, ईमानदार और जिम्मेदार थी। ऐतिहासिक दस्तावेजों को ठीक से पढ़ें, तो पाएंगे कि संकीर्णता, घृणा, स्वार्थ और झूठ का तब भी बोलबाला था।
वोटर की गुणवत्ता
जातिवाद, साम्प्रदायिकता, भावनाओं का दोहन, गुंडागर्दी, अपराधियों की भूमिका, पैसे का बढ़ता इस्तेमाल वगैरह-वगैरह। पर ये क्यों हैं? हैं तो इनके पीछे कोई वजह होगी। हम जिस सिस्‍टम की रचना कर रहे हैं, वह हमारे देश में तो नया है ही, सारी दुनिया में भी बहुत पुराना नहीं है। हमने क्यों मान लिया कि सार्वभौमिक मताधिकार जादू की छड़ी है, जो चमत्कारिक परिणाम देगा? हमारे विमर्श पर यह बात हावी है कि जबर्दस्त मतदान होना चाहिए। जितना ज्यादा वोट पड़ेगा, उतना ही वह जन-भावनाओं का प्रतिनिधित्व करेगा। यह जाने बगैर कि जनता की दिलचस्पी चुनाव में कितनी है? और सिस्‍टम के बारे में उसकी जानकारी का स्तर क्या है?

Sunday, July 15, 2018

रास्ते से भटक क्यों रहा है हमारा लोकतंत्र?

लोकतांत्रिक व्यवस्था की पारदर्शिता को लेकर हाल में दो खबरों से दो तरह के निष्कर्ष निकलते हैं। पिछले हफ्ते तरह केन्द्र ने उच्चतम न्यायालय को बताया कि देश भर में अदालती कार्यवाही का सीधा प्रसारण किया जा सकता है। प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा, न्यायमूर्ति ए एम खानविलकर और न्यायमूर्ति धनन्जय वाई चन्द्रचूड़ की तीन सदस्यीय खंडपीठ ने सभी पक्षकारों से कहा कि वे अदालत की कार्यवाही के सीधे प्रसारण के लिए दिशा निर्देश तैयार करने के बारे में अटार्नी जनरल केके वेणुगोपाल को अपने सुझाव दें। अटार्नी जनरल ने इससे पहले न्यायालय से कहा था कि अदालती कार्यवाही का सीधा प्रसारण दुनिया के अनेक देशों में एक स्वीकार्य परंपरा है। शीर्ष अदालत ने न्यायिक कार्यवाही में पारदर्शिता लाने के इरादे से पिछले साल प्रत्येक राज्य की निचली अदालतों और न्यायाधिकरणों में सीसीटीवी लगाने का निर्देश दिया था।

इस खबर के विपरीत  राज्यसभा के निवृत्तमान उप-सभापति पीजे कुरियन ने कहा कि संसद की कार्यवाही का सीधा प्रसारण बंद कर देना चाहिए, क्योंकि इससे सदन की छवि खराब होती है। कुरियन का कहना था कि सदन की कार्यवाही के दौरान भले ही पीठासीन अध्यक्ष असंसदीय शब्दों को रिकॉर्ड के बाहर कर देते हों, लेकिन डिजिटल मीडिया के इस दौर में ये बातें आसानी से जनता तक पहुंच जाती हैं। इस वजह से सदन में शालीनता और व्यवस्था कायम रखने की कोशिशें बेमतलब हो जाती हैं। उपरोक्त दोनों बातों को मिलाकर पढ़ें, तो क्या निष्कर्ष निकलता है?

Thursday, February 12, 2015

भेड़ों की भीड़ नहीं, जागरूक जनता बनो

दिल्ली की नई विधानसभा में 28 विधायकों की उम्र 40 साल या उससे कम है. औसत उम्र चालीस है. दूसरे राज्यों की तुलना में 7-15 साल कम. चुने गए 26 विधायक पोस्ट ग्रेजुएट हैं. 20 विधायक ग्रेजुएट हैं, और 14 बारहवीं पास हैं. बीजेपी के तीन विधायकों को अलग कर दें तो आम आदमी पार्टी के ज्यादातर विधायकों के पास राजनीति का अनुभव शून्य है. वे आम लोग हैं. उनके परिवारों का दूर-दूर तक रिश्ता राजनीति से नहीं है. उनका दूर-दूर तक राजनीति से कोई वास्ता नहीं है. दिल्ली के वोटर ने परम्परागत राजनीति को दूध की मक्खी की तरह निकाल कर फेंक दिया है. यह नई राजनीति किस दिशा में जाएगी इसका पता अगले कुछ महीनों में लगेगा. यह पायलट प्रोजेक्ट सफल हुआ तो एक बड़ी उपलब्धि होगी.  

Sunday, January 25, 2015

आपके हाथ में है बदलाव की डोर

कुछ साल पहले एक नारा चला था, सौ में 98 बेईमान, फिर भी मेरा भारत महान। इस नारे में तकनीकी दोष है। सौ में 98 बेईमान हैं ही नहीं। सौ में 98 ईमानदार हैं और ईमानदारी से व्यवस्था को कायम करना चाहते हैं। सच यह है कि हम सड़कों पर पुलिस वालों को वसूली करते, गुंडों-लफंगो को उत्पात मचाते, दफ्तरों में कामचोरी होते देखते हैं। हम सोचते हैं कि इनपर काबू पाने की जिम्मेदारी किसी और की है। हमने खुद को भी बेईमान मान लिया तो शिकायत किससे करेंगे? यह व्यवस्था आपकी है।