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Thursday, January 16, 2014

‘आप’ की तेजी क्या उसके पराभव का कारण बनेगी?

दिल्ली में 'आप' सरकार ने जितनी तेजी से फैसले किए हैं और जिस तेजी से पूरे देश में कार्यकर्ताओं को बनाना शुरू किया है, वह विस्मयकारक है। इसके अलावा पार्टी में एक-दूसरे से विपरीत विचारों के लोग जिस प्रकार जमा हो रहे हैं उससे संदेह पैदा हो रहे हैं। मीरा सान्याल और मेधा पाटकर की गाड़ी किस तरह एक साथ चलेगी? इसके पीछे क्या वास्तव में जनता की मनोकामना है या मुख्यधारा की राजनीति के प्रति भड़के जनरोष का दोहन करने की राजनीतिक कामना है?  अगले कुछ महीनों में साफ होगा कि दिल्ली की प्रयोगशाला से निकला जादू क्या देश के सिर पर बोलेगा, या 'आप' खुद छूमंतर हो जाएगा?

फिज़ां बदली हुई थी, समझ में आ रहा था कि कुछ नया होने वाला है, पर 8 दिसंबर की सुबह तक इस बात पर भरोसा नहीं था कि आम आदमी पार्टी को दिल्ली में इतनी बड़ी सफलता मिलेगी। ओपीनियन और एक्ज़िट पोल इशारा कर रहे थे कि दिल्ली का वोटर ‘आप’ को जिताने जा रहा है, पर यह जीत कैसी होगी, यह समझ में नहीं आता था। बहरहाल आम आदमी पार्टी की जीत के बाद से यमुना में काफी पानी बह चुका है। पार्टी की इच्छा है कि अब राष्ट्रीय पहचान बनानी चाहिए। पार्टी अपनी सफलता को लोकसभा चुनाव में भी दोहराना चाहती है। 10 जनवरी से देश भर में ‘आप’ का देशव्यापी अभियान शुरू होगा। इस अभियान का नाम ‘मैं भी आम आदमी’ रखा गया है। सदस्यता के लिए कोई शुल्क नहीं लिया जाएगा।

Monday, November 11, 2013

बूढ़ी कांग्रेस को युवा राजनेताओं को बढ़ाने से रोका किसने है?

कांग्रेस का विरोध माने भाजपा का समर्थन ही नहीं है। और भाजपा से विरोध का मतलब कांग्रेस की समर्थन ही नहीं माना जाना चाहिए। हमने हाल के वर्षों में राजनीति को देखने के चश्मे ऐसे बना लिए हैं कि वयक्ति अनुमान लगाने लगा है कि असल बात क्या है। इसके लिए राजनीतिक शिक्षण भी दोषी है। राज माया के पिछले अंक में मैने नरेन्द्र मोदी के बारे में लिखा था। इस बार राहुल गांधी पर लिखा है। देश के राजनीतिक दलों के अनेक दोष सामाजिक दोष भी हैं, पर हमें सबको देखने समझने की कोशिश भी करनी चाहिए।

परिवहन मंत्री ऑस्कर फर्नांडिस ने हाल में अचानक एक रोज कहा, राहुल गांधी के अंदर प्रधानमंत्री बनने के पूरे गुण हैं। उनकी देखा-देखी सुशील कुमार शिंदे, पीसी चाको और सलमान खुर्शीद से लेकर जीके वासन तक सबने एक स्वर में बोलना शुरू कर दिया कि राहुल ही होंगे प्रधानमंत्री। पिछले महीने बीजेपी के भीतर नेतृत्व को लेकर जैसी सनसनी थी वैसी तो नहीं, पर कांग्रेस के भीतर अचानक राहुल समर्थन का आवेश अब नजर आने लगा है। यह आवेश अभी पार्टी के भीतर ही है, बाहर नहीं। राहुल के समर्थन की होड़ में कोई भी पीछे नहीं रहना चाहता। मैक्सिकन वेव की तरह लहरें उठ रहीं हैं और आश्चर्य नहीं कि देखते ही देखते मोहल्ला स्तर तक के नेता राहुल के समर्थन में बयान जारी करने लगें। लगभग उसी अंदाज में जैसे सत्तर के दशक में इंदिरा गांधी के पक्ष में समर्थन की लहर उठती थी। अचानक कहीं से प्रियंका गांधी का नाम सामने आया कि मोदी के मुकाबले कांग्रेस प्रियंका को सामने ला रही है। यह खबर पार्टी के भीतर से आई या किसी विरोधी न फैलाई, पर पूरे दिन यह मीडिया की सुर्खियों में रही।

Wednesday, September 25, 2013

भाजपा का नमो नमः


देश की राजनीति का रथ अचानक गहरे ढाल पर उतर गया है, जिसे अब घाटी की सतह का इंतजार है जहाँ से चुनाव की चढ़ाई शुरू होगी। संसद के सत्र में जरूरी विधेयकों को पास कराने में सफल सरकार ने घायल पड़ी अर्थव्यवस्था की मरहम-पट्टी शुरू कर दी है। दूसरी ओर भारतीय जनता पार्टी ने नरेन्द्र मोदी को लेकर लम्बे अरसे से चले आ रहे असमंजस को खत्म कर दिया है। देखने को यह बचा है कि अब लालकृष्ण आडवाणी करते क्या हैं। मुजफ्फरनगर के दंगों के कारण पश्चिमी उत्तर प्रदेश में माहौल बिगड़ चुका है। कुछ लोग इसे भी चुनाव की तैयारी का हिस्सा मान रहे हैं। बहरहाल चुनाव आयोग ने पाँच राज्यों के विधानसभा चुनाव की तैयारियां शुरू कर दी हैं। आयोग की टीम ने उन सभी पाँच राज्यों का दौरा शुरू कर दिया है, जहां साल के अंत में चुनाव होने हैं।

Tuesday, August 27, 2013

लोक और तंत्र के बीच यह कौन बैठा है?

पिछले साल दिसम्बर में दिल्ली गैंगरेप की घटना के बाद अचानक लोगों का गुस्सा फूट पड़ा। वे समझ नहीं पा रहे थे कि किसके खिलाफ इस गुस्से का इजहार करें? और किससे करें? देश भयावह संदेहों का शिकार है। एक तरफ आर्थिक संवृद्धि, विकास और समृद्धि के कंगूरे हैं तो दूसरी ओर भ्रष्टाचार और बेईमानी की कीचड़भरी राह है। समझ में नहीं आता हम कहाँ जा रहे हैं? आजादी के 66 साल पूरे हो चुके हैं और लगता है कि हम चार कदम आगे आए हैं तो छह कदम पीछे चले गए हैं। दो साल पहले इन्हीं दिनों अन्ना हजारे का आंदोलन जब शुरू हुआ था तब उसके साथ करोड़ों आँखों की उम्मीदें जुड़ गई थीं। पर वह आंदोलन तार्किक परिणति तक नहीं पहुँचा। और अन्ना आज अपनी जनतांत्रिक यात्राओं के साथ देश के कोने-कोने में जा रहे हैं। पर संशय कम होने के बजाय बढ़ रहे हैं। संसद से सड़क तक देश सत्याग्रह की ओर बढ़ रहा है। सत्याग्रह यानी आंदोलन। कैसा आंदोलन और किसके खिलाफ आंदोलन? गांधी का सत्याग्रह सुराज की खोज थी। कहाँ गया सुराज का सपना?

Tuesday, March 19, 2013

इच्छाधारी राजनीति


प्रधानमंत्री पद का एक अनार और इच्छाधारी सौ बीमार भारत की इच्छाधारी राजनीति बड़े रोचक दौर में प्रवेश कर रही है। हालांकि अभी लोकसभा चुनाव तकरीबन एक साल दूर है, पर तय होने लगा है कि प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी कौन है। दो प्रत्याशी दौड़ में सबसे आगे हैं। नरेन्द्र मोदी और राहुल गांधी। पर कम से कम आधा दर्जन प्रत्याशी और हैं। इनमें नीतीश कुमार, मुलायम सिंह, मायावती, ममता बनर्जी, शरद पवार, जे जयललिता, पी चिदम्बरम, एके एंटनी सहित कुछ नाम और हैं। प्रधानमंत्री बनने की इनकी सम्भावनाओं और कामनाओं के ऐतिहासिक कारण हैं। जुलाई 1979 के पहले कौन कह सकता था कि चौधरी चरण सिंह प्रधानमंत्री बनेंगे? इसी तरह दिसम्बर 1989 के पहले वीपी सिंह के बारे में, नवम्बर 1990 के पहले चन्द्रशेखर के बारे में, जून 1991 के पहले पीवी नरसिंहराव के बारे में, जून 1996 के पहले एचडी देवेगौडा के बारे में और अप्रेल 1997 के पहले इन्द्र कुमार गुजराल के बारे में कहना मुश्किल था कि वे प्रधानमंत्री बनेंगे, पर बने। वे किसी पार्टी के प्रधानमंत्री पद के दावेदार नहीं थे। इसी तरह जनवरी 1966 में लाल बहादुर शास्त्री के असामयिक निधन के बाद इंदिरा गांधी के और अक्टूबर 1984 में इंदिरा गांधी के निधन के बाद राजीव गांधी के प्रधानमंत्री बनने की परिस्थितियाँ असामान्य थीं। कई बार हालात अचानक मोड़ दे देते हैं और तमाम तैयारियाँ धरी की धरी रह जाती हैं। इसलिए देश की राजनीति में एक तबका ऐसा भी है जो विपरीत राजयोग का इंतज़ार करता रहता है। परिस्थितियाँ बनें और राजतिलक हो।