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Thursday, November 1, 2012

गौरी भोंसले के नाम पर क्या यह खबर भी सीरियल की पब्लिसिटी थी?

इस बात पर टाइम्स ऑफ इंडिया ने ध्यान दिया। खबर में खास बात नहीं थी, पर लगता है कि कुछ बड़े अखबार इस खबर के लपेटे में आ गए। हाँ इससे एक बात यह भी साबित हुई कि लगभग सभी अखबार पुलिस की ब्रीफिंग का खुले तरीके से इस्तेमाल करते हैं और हर बात ऐसे लिखते हैं मानो यही सच है। पत्रकारिता की ट्रेनिंग के दौरान उन्हें बताया जाता है कि सावधानी से तथ्यों की पुष्टि करने के बाद लिखो, पर व्यवहार में ऐसा होता नहीं।

पहले आप यह विज्ञापन देखें जो कुछ दिन पहले कई अखबारों में छपा, जिसमें गौरी भोंसले नामक लड़की के लंदन से लापता होने की जानकारी दी गई थी। विज्ञापन देखने से ही पता लग जाता था कि यह किसी चीज़ की पब्लिसिटी के लिए है। इस सूचना की क्लिप्स लगभग खबर के अंदाज़ में एबीपी न्यूज़ में आ रहीं थीं। हालांकि एबीपी न्यूज़ का स्टार टीवी से सम्बन्ध अब नहीं है, पर विज्ञापन क्लिप्स खबर के अंदाज़ में आना क्या गलतफहमी पैदा करना नहीं है? पर स्टार के पास इसका जवाब है कि विज्ञापन को खबर के फॉ्र्मेट में देना मार्केटिंग रण नीति है। बहरहाल पहले से लग रहा था कि स्टार पर कोई सीरियल आने वाला है, जिसमें इस किस्म की कहानी है। अचानक 31 अक्टूबर को दिल्ली के इंडियन एक्सप्रेस, मेल टुडे और हिन्दू ने खबर छापी कि वह लड़की उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले के एक गाँव से बरामद की गई है। हिन्दू ने खबर में लड़की का नाम नहीं दिया, जबकि बाकी दोनों अखबारों ने उसका नाम गौरी भोंसले, वही विज्ञापन वाला नाम।

Thursday, November 3, 2011

बयानबाज़ी के बजाय मीडिया आत्ममंथन करे

हर आज़ादी की सीमा होती है। पर हर सीमा की भी सीमा होती है। हमारे संविधान ने जब अनुच्छेद 19(1)(क) के तहत व्यक्ति को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार दिया था, तब सीमाओं का उल्लेख नहीं किया गया था। पर 1951 में संविधान के पहले संशोधन में इस स्वतंत्रता की युक्तियुक्त सीमाएं भी तय कर दी गईं। पिछले साठ वर्ष में सुप्रीम कोर्ट के अनेक फैसलों से इस स्वतंत्रता ने प्रेस की स्वतंत्रता की शक्ल ली। अन्यथा ‘प्रेस की स्वतंत्रता’ शब्द संविधान में नहीं था और न है। उसकी ज़रूरत भी नहीं। पर अब प्रेस की जगह मीडिया शब्द आ गया है। ‘प्रेस’ शब्द ‘पत्रकारिता’ के लिए रूढ़ हो गया है। टीवी वालों की गाड़ियों पर भी मोटा-मोटा प्रेस लिखा होता है। अखबारों के मैनेजरों की गाड़ियों पर उससे भी ज्यादा मोटा प्रेस छपा रहता है।

इन दिनों हम पत्रकारिता को लेकर संशय में हैं। पिछले 400 वर्ष में पत्रकारिता एक मूल्य के रूप में विकसित हुई है। इस मूल्य(वैल्यू) की कीमत(प्राइस) या बोली लगा दी जाए लगा दी जाए तो क्या होगा? प्रेस काउंसिल के नए अध्यक्ष जस्टिस मार्कंडेय काटजू की कुछ बातों को लेकर मीडिया जगत में सनसनी है। जस्टिस काटजू ने मीडिया की गैर-ज़िम्मेदारियों की ओर इशारा किया है। वे प्रेस काउंसिल के दांत पैने करना चाहते हैं। उन्होंने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर मीडिया काउंसिल बनाने का सुझाव दिया है। ताकि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को भी इसमें शामिल किया जा सके। वे चाहते हैं कि मीडिया के लाइसेंस की व्यवस्था भी होनी चाहिए। वे सरकारी विज्ञापनों पर भी नियंत्रण चाहते हैं। उनकी किसी बात से असहमति नहीं है। महत्वपूर्ण है मीडिया की साख को बनाए रखना। प्रेस काउंसिल की दोहरी भूमिका है। उसे प्रेस पर होने वाले हमलों से उसे बचाना है और साथ ही उसके आचरण पर भी नज़र रखनी होती है। प्रेस की आज़ादी वास्तव में लोकतांत्रिक-व्यवस्था के लिए बेहद महत्वपूर्ण है, पर जब किसी न्यूज़ चैनल का हैड कहे कि दर्शक जो माँगेगा वह उसे दिखाएंगे, तब उसकी भूमिका पर नज़र कौन रखेगा? मीडिया काउंसिल का विचार पिछले कुछ साल से हवा में है। यह बने या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लिए अलग काउंसिल बने, इसके बारे में अच्छी तरह विचार की ज़रूरत है।

Monday, October 24, 2011

कारोबार और पत्रकारिता के बीच की दीवार कैसे टूटी?

प्रेस की आज़ादी का व्यावहारिक अर्थ है मीडिया के मालिक की आज़ादी। इसमें पत्रकार की जिम्मेदारी उन नैतिक दायित्वों की रक्षा करने की थी जो इस कर्म को जनोन्मुखी बनाते हैं। पर देर सबेर सम्पादक पद से पत्रकार हट गए, हटा दिए गए या निष्क्रिय कर दिए गए। या उनकी जगह तिकड़मियों और दलाल किस्म के लोगों ने ले ली। पर कोई मालिक खुद ऐसा क्यों करेगा, जिससे उसके मीडिया की साख गिरे? इसकी वजह कारोबारी ज़रूरतों का नैतिकताओं पर हावी होते जाना है। मीडिया जबर्दस्त कारोबार के रूप में विकसित हुआ है। मीडिया कम्पनियाँ शेयर बाज़ार में उतर रही हैं और उन सब तिकड़मों को कर रही हैं, जो क्रोनी कैपीटलिज़्म में होती हैं। वे अपने ऊपर सदाशयता का आवरण भी ओढ़े रहती हैं। साख को वे कूड़दान में डाल चुकी हैं। उन्हें अपने पाठकों की नादानी और नासमझी पर भी पूरा यकीन है। इन अंतर्विरोधों के कारण  गड़बड़झाला पैदा हो गया है। इसकी दूरगामी परिणति मीडिया -ओनरशिप को नए ढंग से परिभाषित करने में होगी। ऐसा आज हो या सौ साल बाद। जब मालिक की दिलचस्पी नैतिक मूल्यों में होगी तभी उनकी रक्षा होगी। मीडिया की उपादेयता खत्म हो सकती है, पत्रकारिता की नहीं। क्योंकि वह धंधा नहीं एक मूल्य है।

पिछले कुछ वर्षों में भारतीय टीवी चैनल पर एक नया कार्यक्रम दिखाई पड़ा ‘सच का सामना।‘ किसी विदेशी कार्यक्रम की नकल पर बने कार्यक्रम का ध्यान देने वाला पहलू था तो उसकी टाइमिंग। कठोर सच सामने आ रहे हैं। उन्हें सुनने, विचार करने और अपने को सुधारने के बाद ही कोई समाज या संस्था आगे बढ़ सकती है। ऐसा पहली बार हुआ जब बड़े लोग जेल जाने लगे और घोटालों की झड़ी लग गई। और इन मामलों की चर्चा से समूचा मीडिया रंग गया। प्रौढ़ होते समाज के बदलाव का रास्ता विचार-विमर्श और सूचना माध्यमों से होकर गुजरता है। पिछले एक दशक में पत्रकारिता शब्द पर मीडिया शब्द हावी हो गया। दोनों शब्दों में कोई टकराव नहीं, पर मीडिया शब्द व्यापक है। सूचना-संचार कर्म के पत्रकारीय, व्यावसायिक और तकनीकी पक्ष को एक साथ रख दें तो वह मीडिया बन जाता है। इसी कर्म के सूचना-विचार पहलुओं की सार्वजनिक हितकारी और जनोन्मुख अवधारणा है पत्रकारिता। वह अपने साथ कुछ नैतिक दायित्व लेकर चलती है। पर मीडिया कारोबार भी है। वह पहले भी कारोबार था, पर हाल के वर्षों में वह यह साबित करने पर उतारू है कि वह कारोबार ही है। कारोबार के भी अपने मूल्य होते हैं। इस कारोबार के भी थे। वे भी क्रमशः कमज़ोर होते जा रहे हैं।

Friday, December 3, 2010

मीडिया की शक्ल क्या बताती है?

मीडिया के नकारात्मक पहलुओं पर विचार करते-करते व्यक्तियों की भूमिका तक पहुँचना स्वाभाविक है। बल्कि पहले हम व्यक्तियों की भूमिका देखते हैं, फिर उसके मीडिया की। कुछ व्यक्ति स्टार हैं। इसलिए उनकी बाज़ार में माँग है।

स्टार वे क्यों हैं? जवाब देने की हिमाकत करने के पहले देखना पड़ेगा कि स्टार कौन हैं। इलेक्ट्रानिक मीडिया के उदय के बाद से ज्यादातर स्टार वे हैं जो प्राइम टाइम खबरें देते हैं, या शो करते हैं या महत्वपूर्ण मौकों पर कवरेज के लिए भेजे जाते हैं। ध्यान से देखें तो अब स्टार कल्टीवेट किए जाते हैं। वे अपने ज्ञान, लेखन क्षमता या वैचारिक समझ के कारण महत्वपूर्ण नहीं हैं, बल्कि अपनी पहुँच के कारण हैं। कुछ की बनी-बनाई पहुँच होती है। परिवार या दोस्ती की वजह से। और कुछ पहुँच बनाते हैं। जिसकी बन गई उसकी लाटरी और जिसकी नहीं बनी तो उसके लिए कूड़ेदान।

Tuesday, August 3, 2010

पत्रकारिता के समांतर चलता है उसका कारोबार



जब हम मीडिया के विकास, क्षेत्र विस्तार और गुणात्मक सुधार की बात करते हैं, तब सामान्यतः उसके आर्थिक आधार के बारे में विचार नहीं करते। करते भी हैं तो ज्यादा गहराई तक नहीं जाते। इस वजह से हमारे एकतरफा होने की संभावना ज्यादा होती है। कहने का मतलब यह कि जब हम मूल्यबद्ध होते हैं, तब व्यावहारिक बातों को ध्यान में नहीं रखते। इसके विपरीत जब व्यावहारिक होते हैं तब मूल्यों को भूल जाते हैं। जब पत्रकारिता की बात करते हैं, तब यह नहीं देखते कि इतने लोगों को रोजी-रोज़गार देना और साथ ही इतने बड़े जन-समूह के पास सूचना पहुँचाना मुफ्त में तो नहीं हो सकता। शिकायती लहज़े में अक्सर कुछ लोग सवाल करते हैं कि मीडिया की आलोचना के पीछे आपकी कोई व्यक्तिगत पीड़ा तो नहीं? ऐसे सवालों के जवाब नहीं दिए जा सकते। दिए भी जाएं तो ज़रूरी नहीं कि पूछने वाला संतुष्ट हो। बेहतर है कि हम चीज़ों को बड़े फलक पर देखें। व्यक्तिगत सवालों के जवाब समय देता है।

पत्रकार होने के नाते हमारे पास अपने काम का अनुभव और उसकी मर्यादाओं से जुड़ी धारणाएं हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि हम कारोबारी मामलों को महत्वहीन मानें और उनकी उपेक्षा करें। मेरा अनुभव है कि मीडिया-बिजनेस में तीन-चार तरह की प्रवृत्तियाँ हैं, जो व्यक्तियों के मार्फत नज़र आती हैं। एक है कि हमें केवल पत्रकारीय कर्म और मर्यादा के बारे में सोचना चाहिए। कारोबार हमारी समझ के बाहर है। पत्रकारीय कर्म के भी अंतर्विरोध हैं। एक कहता है कि हम जिस देश-काल को रिपोर्ट करते हैं, उससे निरपेक्ष रहें। जिस राजनीति पर लिखते हैं, उसमें शामिल न हों। दूसरा कहता है कि राजनीति एक मूल्य है। मैं उस मूल्य से जुड़ा हूँ। मेरे मन में कोई संशय नहीं। मैं एक्टिविस्ट हूँ, वही रहूँगा।

तीसरा पत्रकारीय मूल्य से हटकर कारोबारी मूल्य की ओर झुकता है। वह कारोबार की ज़रूरत को भी आंशिक रूप से समझना चाहता है। चौथा कारोबारी एक्टिविस्ट है यानी वह पत्रकार होते हुए भी खुलेआम बिजनेस के साथ रहना चाहता है। वह मार्केटिंग हैड से बड़ा एक्सपर्ट खुद को साबित करना चाहता है। पाँचवाँ बिजनेसमैन है, जो कारोबार जानता है, पर पत्रकारीय मर्यादाओं को तोड़ना नहीं चाहता। वह इस कारोबार की साख बनाए रखना चाहता है। छठे को मूल्य-मर्यादा नहीं धंधा चाहिए। पैसा लगाने वाले ने पैसा लगाया है। उसे मुनाफे के साथ पैसे की वापसी चाहिए। आप इस वर्गीकरण को अपने ढंग से बढ़ा-घटा सकते हैं। इस स्पेक्ट्रम के और रंग भी हो सकते हैं। एक संतुलित धारणा बनाने के लिए हमें इस कारोबार के सभी पहलुओं का विवेचन करना चाहिए।

इन दिनों ब्लॉगिंग चर्चित विषय है। चिट्ठाजगत से हर रोज तकरीबन दस-पन्द्रह नए चिट्ठों के पंजीकरण की जानकारी दी जाती है। वास्तविक नए ब्लॉगों की संख्या इससे कहीं ज्यादा होगी। चिट्ठाजगत में पंजीकृत चिट्ठों की संख्या पन्द्रह हजार के पास पहुँच रही है। हर रोज चार सौ से पाँच सौ के बीच ब्लॉग पोस्ट आती हैं। यानी इनमें से पाँच प्रतिशत भी नियमित रूप से नहीं लिखते। एक तरह की सनसनी है। एक नई चीज़ सामने आ रही है। एक लोकप्रिय एग्रेगेटर ब्लॉगवाणी के अचानक बंद हो जाने से ब्लॉगरों में निराशा है। इस बीच दो-एक नए एग्रेगेटर तैयार हो रहे हैं। यह सब कारोबार से भी जुड़ा है। कोई सिर्फ जनसेवा के लिए एग्रेगेटर नहीं बना सकता। उसका कारोबारी मॉडल अभी कच्चा है। जिस दिन अच्छा हो जाएगा, बड़े इनवेस्टर इस मैदान में उतर आएंगे। ब्लॉग लेखक भी चाहते हैं कि उनके स्ट्राइक्स बढ़ें। इसके लिए वे अपने कंटेंट में नयापन लाने की कोशिश करते हैं। इसके लिए कुछ ने सनसनी का सहारा भी लिया है। अपने समूह बना लिए हैं। एक-दूसरे का ब्लॉग पढ़ते हैं। टिप्पणियाँ करते हैं। वे अपनी बात ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुँचाना चाहते हैं। साथ ही इसे व्यावसायिक रूप से सफल भी बनाना चाहते हैं। मिले तो विज्ञापन भी लेना चाहेंगे। ध्यान से पढ़ें तो मीडिया बिजनेस की तमाम प्रवृत्तियाँ आपको यहाँ मिलेंगी।

भारत में अभी प्रिंट मीडिया का अच्छा भविष्य है। कम से कम दस साल तक बेहतरीन विस्तार देखने को मिलेगा। इसके साथ ही इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का विस्तार हो रहा है। वह भी चलेगा। उसके समानांतर इंटरनेट का मीडिया आ रहा है, जो निश्चित रूप से सबसे आगे जाएगा। पर उसका कारोबारी मॉडल अभी शक्ल नहीं ले पाया है। मोबाइल तकनीक का विकास इसे आगे बढ़ाएगा। तमाम चर्चा-परिचर्चाओं के बावज़ूद इंटरनेट मीडिया-कारोबार शैशवावस्था में, बल्कि संकट में है।

दुनिया के ज्यातर बड़े अखबार इंटरनेट पर आ गए हैं। वॉशिंगटन पोस्ट, न्यूयॉर्क टाइम्स, गार्डियन, टेलीग्राफ, इंडिपेंडेंट, डॉन, टाइम्स ऑफ इंडिया और हिन्दू से लेकर जागरण, भास्कर, हिन्दुस्तान और अमर उजाला तक। ज्यादातर के ई-पेपर हैं और न्यूज वैबसाइट भी। पर इनका बिजनेस अब भी प्रिंट या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के मुकाबले हल्का है। विज्ञापन की दरें कम हैं। इनमे काम करने वालों की संख्या कम होने के बावजूद उनका वेतन कम है। धीरे-धीरे ई-न्यूज़पेपरों की फीस तय होने लगी है। रूपर्ट मर्डोक ने पेड कंटेंट की पहल की है। अभी तक ज्यादातर कंटेंट मुफ्त में मिलता है। रिसर्च जरनल, वीडियो गेम्स जैसी कुछ चीजें ही फीस लेकर बिक पातीं हैं। संगीत तक मुफ्त में डाउनलोड होता है। बल्कि हैकरों के मार्फत इंटरनेट आपकी सम्पत्ति लूटने के काम में ही लगा है। मुफ्त में कोई चीज़ नहीं दी जा सकती। मुफ्त में देने वाले का कोई स्वार्थ होगा। ऐसे में गुणवत्ता और वस्तुनिष्ठा नहीं मिलती। डिजिटल इकॉनमी को शक्ल देने की कोशिशें हो रहीं हैं।

कभी मौका मिले तो हफिंगटनपोस्ट को पढ़ें। इंटरनेट न्यूज़पेपर के रूप में यह अभी तक का सबसे सफल प्रयोग है। पिछले महीने इस साइट पर करीब ढाई करोड़ यूनीक विज़िटर आए। ज्यादातर बड़े अखबारों की साइट से ज्यादा। पर रिवेन्यू था तीन करोड़ डॉलर। साधारण अखबार से भी काफी कम। हफिंगटन पोस्ट इस वक्त इंटरनेट की ताकत का प्रतीक है। करीब छह हजार ब्लॉगर इसकी मदद करते हैं। इसके साथ जुड़े पाठक बेहद सक्रिय हैं। हर महीने इसे करीब दस लाख कमेंट मिलते हैं। चौबीस घंटे अपडेट होने वाला यह अखबार दुनिया के सर्वश्रेष्ठ अखबारों की कोटि की सामग्री देता है। साथ में वीडियो ब्लॉगिंग है। सन 2005 से शुरू हुई इस न्यूज़साइट के शिकागो, न्यूयॉर्क, डेनवर, लॉस एंजलस संस्करण निकल चुके हैं। पिछले साल जब फोर्ब्स ने पहली बार मीडिया क्षेत्र में सबसे प्रभावशाली महिलाओं की सूची छापी तो इस साइट की को-फाउंडर एरियाना हफिंगटन को बारहवें नम्बर पर रखा।

इंटरनेट के मीडिया ने अपनी ताकत और साख को स्थापित कर दिया है। पर यह साख बनी रहे और गुणवत्ता में सुधार हो इसके लिए इसका कारोबारी मॉडल बनाना होगा। नेट पर पेमेंट लेने की व्यवस्था करने वाली एजेंसी पेपॉल को छोटे पेमेंट यानी माइक्रो पेमेंट्स के बारे में सोचना पड़ रहा है। जिस तरह भारत में मोबाइल फोन के दस रुपए के रिचार्ज की व्यवस्था करनी पड़ी उसी तरह इंटरनेट से दो रुपए और दस रुपए के पेमेंट का सिस्टम बनाना होगा। चूंकि नेट अब मोबाइल के मार्फत आपके पास आने वाला है, इसलिए बहुत जल्द आपको चीजें बदली हुई मिलेंगी। और उसके बाद कंटेंट के कुछ नए सवाल सामने आएंगे। पर जो भी होगा, उसमें कुछ बुनियादी मानवीय मूल्य होंगे। वे मूल्य क्या हैं, उनपर चर्चा ज़रूर करते रहिए।

चलते-चलते

Friday, July 23, 2010

पत्रकारिता का मृत्युलेख

रामनाथ गोयनका पत्रकारिता  पुरस्कार समारोह के दौरान पेड न्यूज़ को लेकर परिचर्चा भी हुई। ऐसी परिचर्चा पिछले साल के समारोह में भी हो सकती थी। हालांकि उस वक्त तक यह मामला उठ चुका था। यों पिछले साल जब हिन्दू में पी साईनाथ के लेख प्रकाशित हुए तब इस मामले पर बात शुरू हुई। वर्ना मान लिया गया था कि इस सवाल पर मीडिया मौन धारण करे रहेगा।


गुरुवार के समारोह में अभिषेक मनु सिंघवी ने ठीक सवाल उठाया कि मीडिया तमाम सवालों पर विचार करता है, इसपर क्यों नहीं करता। इस समारोह में मौज़ूद कुमारी शैलजा, सचिन पायलट और दीपेन्द्र हुड्डा ने बताया कि उनके पास मीडिया के लोग आए थे। बात इतनी साफ है तो क्यों नहीं हम इस मामले पर आगे जाकर पता लगाएं कि कौन पैसा माँगने आया था। किसने किसको कितना पैसा दिया। वह पैसा कहाँ गया वगैरह का पता तो लगे।


पेज3 की पेड न्यूज़ और चुनाव की पेड न्यूज़ में फर्क नहीं करना चाहिए। यह सब अपनी साख को तबाह करना है। इस समारोह मे हालांकि ज्यादातर वे लोग शामिल थे, जो इन बातों से ज्यादा नहीं जुड़े रहे हैं, पर उनमे से ज्यादातर के मासूम सवाल जनता के सवाल हैं। मसलन रविशंकर प्रसाद का यह सवाल कि क्या पत्रकारिता सीधे-सीधे ट्रेड और बिजनेस है? क्या ऐसा है? ऐसा है कहने के बाद पूरी व्यवस्था धड़ाम से ज़मीन पर आकर गिरती है। अरुणा रॉय कहती हैं कि डैमोक्रेसी में मीडिया का रोल है। मीडिया को प्रॉफिट-लॉस का कारोबार नहीं बनना चाहिए।


अच्छी बात है कि हम मीडिया की भूमिका पर बात कर रहे हैं, पर हम क्यों उम्मीद करें कि मीडिया प्रॉफिट-लॉस के मोह-जाल से ऊपर उठकर काम करेगा। उसे निकालने के पीछे की मनोभावनाएं वही रहेंगी तो इसमें कोई बदलाव नहीं होगा। ज़रूरत इस बात की है कि हम मीडिया का मालिक कौन हो इस सवाल को उठाएं।  यह सब जनता के दरवार में तय होना है। जनता बहुत सी बातों से अपरिचित है। वह हमपर ही भरोसा करती थी, पर हम उसे बताना नहीं चाहते। इसलिए इस मीडिया के भीतर से साखदार मीडिया के उभरने की ज़रूरत है। यह बेहद मुश्किल काम है, क्योंकि दूध का जला हर दूध को जलाने वाला समझेगा।


मुझे लगता है पत्रकारिता को जिस तरह से राजनेताओं और सत्ता से जोड़ा गया है, उसे देखते हुए जल्द किसी बदलाव की उम्मीद नहीं करनी चाहिए। आखिरकार इंडियन एक्सप्रेस का यह समारोह भी पीआर एक्सरसाइड़ थी जिसमें अखबार की रपट के अनुसार शामिल होने वाले गणमान्य लोगों में गिनाने लायक नाम राजनेताओं के ही थे। एकाध पत्रकार भी था, तो वही पेज3 मार्का। पत्रकारिता का व्यवस्था के साथ 36 का रिश्ता होना चाहिए, पर यहाँ वैसा है नहीं। इसलिए सारी बातें ढोंग जैसी लगती हैं।


इंडियन एक्सप्रेस के पेज 2 पर इस गोष्ठी की बड़ी सी खबर है जिसका शीर्षक है 'पेड न्यूज़ कुड मार्क डैथ ऑफ जर्नलिज़्म'। यह खुशखबरी है या दुःस्वप्न?


कुछ महत्वपूर्ण लिंक


प्रेस काउंसिल रपट
काउंटरपंच में पी साइनाथ का लेख
हिन्दू में पी साइनाथ का लेख
इंडिया टुगैदर
सेमिनार
द हूट
न्यूज़ फॉर सेलः द हूट
सैलिंग कवरेजः द हूट
प्लीज़ डू नॉट सैल-विनोद मेहता 

Wednesday, July 21, 2010

बाजार से भागकर कहाँ जाओगे?




पत्रकारों की तीन या चार पीढ़ियाँ हमारे सामने हैं। एक, जिन्हें रिटायर हुए पन्द्रह-बीस साल या उससे ज्यादा समय हो गया। दूसरे वे जो या तो रिटायर हो रहे हैं या दो-एक साल में होंगे। तीसरे जो 35 से 50 की उम्र के हैं और चौथे जिन्हें आए दस साल से कम का समय हुआ है या जो अभी शामिल ही हुए हैं। मीडिया के बारे में इन सब की राय एक जैसी नहीं है। 75 या 80 साल की उम्र वालों का अनुभव सिर्फ अखबारों का है। उसके बाद वाले इलेक्ट्रॉनिक और इंटरनेट मीडिया से भी वाकिफ हैं। एकदम नई पीढ़ी को बड़े बदलावों का इंतज़ार है। पुरानी पीढ़ी मीडिया को संकटग्रस्त मानती है। वह इसे घटती साख और कम होते असर की दृष्टि से देखती है। नई पीढ़ी की दिलचस्पी अपने मेहनताने में है। अपने भविष्य और करियर में। दोनों मामले मीडिया के कारोबारी मॉडल से जुड़े हैं।


अक्सर हम लोग मीडिया के अंतर्विरोधों के लिए मार्केट को जिम्मेदार मानते हैं। हम यह नहीं देखते कि मार्केट न होता तो इतना विस्तार कैसे होता। इस विस्तार से गाँवों और कस्बों तक में बदलाव हुआ है। कई प्रकार की सामंती प्रवृत्तियों पर प्रहार हुआ है। जनता की लोकतांत्रिक भागीदारी बढ़ी है। हमारे पास इस विस्तार का कोई दूसरा मॉडल है भी नहीं। मार्केट की सबसे बड़ी खासियत यह है कि यह आपको वैकल्पिक रास्ता खोजने का मौका देता है। आज भी यदि कोई संज़ीदा अखबार या गम्भीर चैनल शुरू करना चाहे तो उसपर रोक नहीं है। बाज़ार नई प्रवृत्तियों को खरीदने की कोशिश करता है। संज़ीदा पाठक या बाज़ार है तो यह उसे भी खरीद लेगा, जैसे रूपर्ट मर्डोक ने लंदन टाइम्स जैसा संज़ीदा अखबार खरीदा। इस मार्केट पर पाठक और लोकतंत्र का दबाव होगा तो यह नियंत्रण में रहेगा। फिर भी यह दीर्घकालीन हल नहीं है।


मीडिया, खासतौर से हिन्दी का जो कारोबारी मॉडल हमारे सामने है, वह पिछले डेढ़ दशक में उभरा है। पहले प्रेस आयोग को लगता था कि भारतीय प्रेस को इज़ारेदारी(मोनोपॉली) से बचाना चाहिए। वक्त के साथ यह अंदेशा सही साबित नहीं हुआ। बड़े मीडिया हाउसों के मुकाबले छोटे और स्थानीय स्तर के व्यापारियों ने हिन्दी के अखबार निकाले। अखबारों की बड़ी चेनें इनके सामने टूट गईं। ऐसा क्यों और कैसे हुआ, इस पर कभी आगे चर्चा करेंगे। हिन्दी के पहले दस अखबारों में सिर्फ दो पुराने और बड़े मीडिया समूहों से जुड़े हैं। इनमें से एक के पास विस्तार का कोई भावी कार्यक्रम नज़र नहीं आता। हिन्दी को छोड़ दें तो देश की अन्य भाषाओं के अखबारों में से कोई भी अंग्रेजी अखबारों की परम्परागत चेन से नहीं निकला है। नई ओनरशिप खाँटी देशी है। उसके विकसित होने के पीछे तीन कारक हैं। एक, स्वभाषा प्रेम जो हमारे राज्यों के पुनर्गठन का आधार बना। दूसरे, स्थानीयता। और तीसरे राजनीति और राजव्यवस्था पर प्रभाव। इस तीसरे कारक के कारण बिल्डर या इसी किस्म के कारोबारी मीडिया की तरफ आकृष्ट हुए हैं। कुछ साल पहले तक चिट फंड कम्पनियों वाले इधर आए थे। ये सब मीडिया पर इतने कृपालु क्यों हुए हैं? मीडिया के इनफ्लुएंस के कारण ऐसा है। यह इनफ्लुएंस पाठक पर कम सरकार पर ज्यादा है। दूसरे अब इसमें मुनाफा भी है।


बिजनेस और राजनीति को भारतीय भाषाओं की अहमियत नज़र आई है। बिजनेस को इसमें फायदा दिखाई पड़ता है और राजनीति को वोट। भारतीय भाषाई अखबारों के शुरूआती मालिक स्थानीय कारोबारी थे। उनका बिजनेस मॉडल देशी था। अब वे बिजनेस-प्रबंध की अहमियत समझने लगे हैं। विस्तार के लिए पूँजी की ज़रूरत है। उसके लिए ये अखबार पूँजी बाज़ार की ओर जा रहे हैं। अखबार की गुणवत्ता, साख और करियर के सवाल इन बातों से जुड़े हैं। ये सवाल या तो पाठक के हैं या पत्रकार के। कारोबारियों के नहीं। कारोबारी को यहां तुरत फायदा नज़र आ रहा है, जिसे फिलिप मेयर हार्वेस्टिंग मार्केट पोज़ीशन कहते हैं। अखबार ईज़ी मनी के ट्रैप में हैं। यह ईज़ी मनी शेयर बाज़ार में भी है। पर यह सब ऐसा ही नहीं रहेगा। शेयर बाज़ार को भी ज्यादा ट्रांसपेरेंट बनाने की कोशिश होगी।


हाल में पेड न्यूज़ के जिस मसले पर हम माथा-पच्ची करते रहे हैं, वह सिर्फ मीडिया का मसला ही तो नहीं था। अनुमान है कि चुनाव के दौरान करीब 5000 करोड़ रुपया इस मद में खर्च हुआ। यह रुपया किसके पास से किसके पास गया? ऐसी पब्लिसिटी की किसी ने रसीद नहीं दी होगी। और न पक्की किताबों में इसका ब्योरा रखा गया होगा। इसका मतलब काली अर्थ-व्यवस्था में गया। यह काली अर्थव्यवस्था सिर्फ मीडिया हाउसों तक सीमित नहीं है। मीडिया-कर्म के विचार से इस काम से हमारी साख को धक्का लगा। यह धक्का किसे लगा?  पाठकों को, नेताओं को, चुनाव आयोग को या पत्रकारों को? मालिकों को क्यों नहीं लगा? अखबार तो उनके थे। अपने अखबार की साख गिरती देखना उन्हें खराब क्यों नहीं लगा?

दरअसल बहुत दूर की कोई नहीं सोचता। टेक्नॉलजी का बदलाव पूरे औद्योगिक ढाँचे को बदल देगा। अनेक उद्योग आने वाले वर्षों में गायब हो जाएंगे। अनेक कम्पनियाँ जो आज चमकती नज़र आ रहीं हैं, अगले कुछ साल में व्यतीत हो जाएंगी। ऐसा ही सूचना के साथ होने वाला है। अखबार या मीडिया इनफ्लुएंस बेचता है। पाठक उसके प्रभाव को मानता है। पर कारोबार को शायद यह बात समझ में नहीं आती। वह कॉस्ट कम करने और प्रॉफिट बढ़ाने के परम्परागत विचार पर कायम है। वह अपने दीर्घकालीन अस्तित्व के बारे में नहीं सोच रहा। उसकी बॉटमलाइन मुनाफा है। उसका ज़ोर ऐसी तकनीक खरीदने पर है जो लागत (कॉस्ट) कम करे। ऐसा वह बेहतर पत्रकारिता की कीमत पर कर रहा है। पत्रकारिता पर इनवेस्ट करना नादानी लगती है और उसकी सलाह देने वाले नादान। न्यूज़रूम पर इनवेस्ट करना घाटे का सौदा लगता है। आप कैसा भी अखबार निकालें, पैसा आता रहेगा तो आप इनोवेशन बंद कर देंगे। अंततः मीडिया न्यूज़ फैक्ट्री में तब्दील हो जाएगा।


पाठक की मीडिया से अपेक्षा सिर्फ खबरें बेचने की नहीं है। खासतौर से उस मीडिया से जो उसे धोखा देकर खबर के नाम पर विज्ञापन छापता है। इसपर भी शर्मिन्दा नहीं है। यह सूचना का युग है। इसमें सूचना की बहुलता हमारे दुष्कर्म का भंडाफोड़ भी कर देती है, पर उसकी परिणति क्या है? नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री हर्बर्ट सायमन के शब्दों में इससे खबरदारी की मुफलिसी(पोवर्टी ऑफ अटेंशन) पैदा हो रही है। जनता हमपर ध्यान नहीं देगी। उसके बाद हम उन पर्चों जैसे बेजान हो जाएंगे जो हर सुबह हमारे अखबारों के साथ चिपके चले जाते हैं। और जिन्हें हम सबसे पहले अलग करते हैं। जो शानदार रंगीन छपाई के बावजूद हमारी निगाहों में नहीं चढ़ते।


मीडिया का मौजूदा मॉडल मार्केट-केन्द्रित है। वह ज़ारी रहेगा। उसे आप बदल नहीं पाएंगे। एक रास्ता यह है कि आप वैकल्पिक अखबार तैयार करें और उसे सफल बनाकर दिखाएं। पैसा लगाने वाले तब सामने आएंगे। पर अंततः मीडिया पर लगने वाली पूँजी और प्रॉफिट का गणित अलग ही होगा। उसपर वह पूँजी लगे, जिसे अपनी साख की फिक्र भी हो। संयोग से इसपर विचार भी शुरू हो गया है। उसपर फिर कभी।