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Monday, December 12, 2016

भिंडी बाजार बनती राजनीति

राहुल गांधी ने कहा, नोटबंदी पर फैसले को चुनौती देने वाला मेरा भाषण तैयार है, लेकिन संसद में मुझे बोलने से रोका जा रहा है. मुझे बोलने दिया गया तो भूचाल आ जाएगा. सरकार की शिकायत है कि विपक्ष संसद को चलने नहीं दे रहा. उधर राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने कहा है, सांसद अपनी जिम्मेदारी निभाएं. आपको संसद में चर्चा करने के लिए भेजा गया है, पर आप हंगामा कर रहे हैं. उधर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शनिवार को गुजरात के बनासकांठा में हुई किसानों की रैली में कहा, मुझे लोकसभा में बोलने नहीं दिया जाता, इसलिए मैंने जनसभा में बोलने का फैसला किया है.

Sunday, December 11, 2016

संसदीय गरिमा को बचाओ

राहुल गांधी कहते हैं, सरकार मुझे संसद में बोलने नहीं दे रही। मैं बोलूँगा तो भूचाल आ जाएगा। और अब प्रधानमंत्री भी कह रहे हैं कि मुझे बोलने नहीं दिया जाता। उधर पीआरएस के आँकड़ों के अनुसार संसद के शीत सत्र में लोकसभा में 16 और राज्यसभा में 19 फीसदी काम हुआ है। लोकसभा में जो भी काम हुआ उसका एक तिहाई प्रश्नोत्तर के रूप में है। राज्यसभा में प्रश्नोत्तर हो ही नहीं पाए। लोकसभा ने इस दौरान आयकर से जुड़ा एक संशोधन विधेयक पास किया, जो केवल 10 मिनट में पास हो गया। यह सत्र 16 दिसंबर तक चलना है। सोमवार और मंगल को अवकाश हैं। अब सिर्फ तीन दिन बचे हैं।
संसद के न चलने की वजह केवल विपक्ष नहीं है। इसमें सरकार की भी भूमिका है। संसदीय गरिमा की रक्षा करना दोनों की जिम्मेदारी है। सुनाई पड़ रहा है कि सरकार और विपक्ष के बीच बचे हुए समय के सदुपयोग पर सहमति बनी है, पर सच यह है कि काफी कीमती समय बर्बाद हो गया है। एक बौद्धिक तबक़ा कहता है कि राजनीति में शोर है तो उसे दिखाना और सुनाना भी चाहिए। सड़क पर शोर है तो संसद में क्यों नहीं? शोर के सांकेतिक अर्थ महत्वपूर्ण हैं। पर यदि वह पूरे के पूरे सत्र को बहा ले जाए तो उसका कोई मतलब भी नहीं रह जाता। और वह शोर निरर्थक हो जाता है और संसद भी।  

Monday, July 18, 2016

संजीदा होती संसदीय राजनीति

वो 4 मसले जो मॉनसून सत्र में छाए रहेंगे



मॉनसून सत्रImage copyrightPIB

इस बार संसद का मॉनसून सत्र कई वजहों से काफी महत्वपूर्ण है. पिछले साल का मॉनसून सत्र विवादों और हंगामे में धुल गया था.
इसको दो तरह से देखा जाना चाहिए. एक तो जो राजनीतिक मसले हैं, यानी पूरी राजनीति जिनके इर्द-गिर्द रहेगी. ये देखना दिलचस्प होगा कि देश के विभिन्न क्षेत्रों की राजनीति किस प्रकार से संसद में नज़र आती है.
दूसरा ये है कि जो संसदीय कार्य हैं, ख़ासतौर पर विधेयकों का पारित होना, जो प्रशासनिक व्यवस्था और राज व्यवस्था के लिए ज़रूरी हैं, वो हो पाएगा या नहीं.
राजनीति के लिहाज़ से देखा जाए तो कांग्रेस पार्टी की फिलहाल अरुणाचल प्रदेश और उत्तराखंड में जो वापसी हुई है उससे उसमें काफी उत्साह है.


भारतीय संसदImage copyrightPTI

उन दोनों राज्यों में कांग्रेस सरकारों की वापसी होने के साथ-साथ राज्यपालों की भूमिका, केंद्र सरकार के हस्तक्षेप और राष्ट्रपति शासन लगाए जाने को लेकर भाजपा सरकार को काफी फजीहत का सामना करना पड़ रहा है.
दोनों सदनों में किसी ना किसी रूप में ये बात ज़रूर उठेगी. कांग्रेस पार्टी इसके राजनीतिक निहितार्थ को देश की जनता के सामने रखना चाहेगी.
दूसरा ये है कि समान नागरिक संहिता को लेकर केंद्र सरकार कुछ पहल कर रही है.
सायरा बानो का जो तीन तलाक वाला मामला था, उसको लेकर सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से कुछ सवाल किए हैं.
तीसरा मसला भारत प्रशासित कश्मीर में चल रहे घटनाक्रम का है. कांग्रेस पार्टी, भाजपा की गलतियों को उभारना ज़रूर चाहेगी.


एनएसजी बैठकImage copyrightAP

एक और मसला जो उठेगा, वो है एनएसजी में इस बार भारत को सदस्यता नहीं मिल पाना.
एनएसजी को लेकर जो 'हाइप' हुआ था, उसको लेकर कांग्रेस, भाजपा सरकार की आलोचना ज़रूर करेगी.
एक-दो और मसले हैं. टेलीकॉम स्पेक्ट्रम की नीलामी को लेकर भी सरकार को घेरा जा सकता है.
करीब 11 विधेयक लोकसभा में और 43 राज्यसभा में पहले से पड़े हुए हैं, यानी बहुत समय से चीज़ें अधूरी पड़ी हुई हैं.
फिलहाल मोटे तौर पर 9 विधेयकों को पारित करने का काम सरकार के पास है जिसमें से ख़ासतौर से छह को पेश करने और उनको पास कराने की ज़रूरत सरकार महसूस करती है.
पूरा आलेख पढ़ें बीबीसी हिन्दी डॉट कॉम पर

Sunday, May 15, 2016

संसद की संतुलित भूमिका

बजट सत्र में भी शेष प्रश्न बना रहा जीएसटी


संसदImage copyrightAFP
देश में भयावह सूखे का क़हर, जेएनयू-हैदराबाद विश्वविद्यालयों की अशांति, पठानकोट से लेकर इशरत जहां मामलों की सरगर्मी और अगस्ता वेस्टलैंड हेलिकॉप्टरों की गूँज के बावजूद संसद का बजट सत्र अपेक्षाकृत शालीन रहा और कामकाज भी हुए. लेकिन जीएसटी क़ानून फिर भी पास नहीं हुआ.
यह क़ानून उपयोगी है तो पास क्यों नहीं होता? नरेंद्र मोदी ने राज्यसभा में सेवानिवृत्त हो रहे सांसदों से कहा कि आपके रहते बिल पास होता तो बेहतर था. सत्ता और विपक्ष के बीच अविश्वास क़ायम है.
मॉनसून और शीत सत्रों के पेशेनज़र राष्ट्रपति के अभिभाषण में इस बार प्रतीकों के सहारे कहा गया था कि संसद चर्चा के लिए है, हंगामे के लिए नहीं. शीत सत्र के आख़िरी दिन राज्यसभा के सभापति ने भी इसी आशय की बात कही थी.
इन बातों का असर हुआ. हालांकि तीखी बहस, कटाक्ष और आक्षेप फिर भी हुए. धरना-बहिष्कार भी. लेकिन काम चलता रहा. लोकसभा में एक मिनट का भी गतिरोध नहीं हुआ, जिसके लिए अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने सदन का शुक्रिया अदा किया.
लोकसभाImage copyrightLOKSABHA TV
सत्ता-पक्ष ने भी फ्लोर मैनेजमेंट की कोशिशें कीं. क्षेत्रीय दलों से अलग बात की गई. कांग्रेस भी नरम पड़ी. पिछले दो सत्रों में कामकाज न होने का ठीकरा उसके सिर फोड़ा गया था.
सत्र का दूसरा भाग तकनीकी तौर पर 'नया सत्र' था. उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन लगाने के लिए पहले दौर के बाद सत्रावसान कर दिया गया था.
पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च के मुताबिक बजट सत्र में लोकसभा की उत्पादकता 121 फीसदी और राज्यसभा की लगभग 100 फीसदी के आसपास रही.
लोकसभा के प्रश्नोत्तर काल की उत्पादकता 27 फीसदी रही जो पिछले 15 वर्षों में सबसे ज्यादा है. आँकड़ों में यह सफलता है, पर संसदीय कर्म का मर्म केवल आँकड़ों से नहीं समझा जा सकता.
सहमति-सद्भाव हो तो काम कितने अच्छे तरीके से होता है इसकी मिसाल बना राजेंद्र कृषि विश्वविद्यालय पूसा, समस्तीपुर को केंद्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा देने वाला विधेयक.
प्रणब मोदी परिकरImage copyrightAP
एक ही दिन में दोनों सदनों से यह पास हो गया. उसी दिन राष्ट्रपति के हस्ताक्षर भी इसपर हो गए.
बैंकरप्सी कोड का पास होना इस सत्र की महत्वपूर्ण उपलब्धि है. उदारीकरण से जुड़े क़ानूनों में यह भी एक है. इसकी ज़रूरत ऐसे समय में महसूस की गई जब देश बैंकों की बड़ी धनराशि बट्टेखाते में जाने के कारण चिंतित है.
यह क़ानून बनने से बीमार कंपनियों के लिए अपना बिजनेस समेटना आसान हो जाएगा. अभी कंपनी बंद करने में करीब चार साल लगते हैं. अब यह समय घटकर एक साल रह जाएगा.
दिवालिया कंपनियों से कर्ज़ की वसूली आसान होगी. कारोबार में सरलता और सिस्टम में पारदर्शिता आएगी.
अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने हाल ही में कहा है कि भारत के लिए जीएसटी, भूमि और श्रम सुधार से जुड़े क़ानूनों में बदलाव बेहद ज़रूरी है. उदारीकरण से जुड़े क़ानून अब भी अटके हुए हैं.
भूमि अधिग्रहण क़ानून में संशोधन पर सहमति नहीं बन पाई है. उससे जुड़ी संयुक्त संसदीय समिति की सिफ़ारिशें आने में देर हो रही है. शायद मॉनसून सत्र में आएं.

Sunday, March 6, 2016

संसद की बेहतर भूमिका

संसद के बजट सत्र के पहले दो हफ्तों का अनुभव अपेक्षाकृत बेहतर रहा है। पिछले दो सत्रों को देखते हुए अंदेशा था कि यह सत्र भी निरर्थक रहेगा। इस अंदेशे के पेशे नजर राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने अपने अभिभाषण में प्रतीकों के सहारे कहा था कि लोकतांत्रिक भावना का तकाजा है कि सदन में बहस और विचार-विमर्श हो। संसद चर्चा के लिए है, हंगामे के लिए नहीं। उसमें गतिरोध नहीं होना चाहिए। राष्ट्रपति के अभिभाषण के धन्यवाद प्रस्ताव पर लोकसभा में रोचक नोक-झोंक तो हुई, पर सदन का समय खराब नहीं हुआ। इस हफ्ते पाँच राज्यों के विधानसभा चुनाव की तारीखें भी घोषित हो गईं हैं। संसद का यह सत्र चुनावों के साथ-साथ चलेगा, इसलिए चुनाव की प्रतिध्वनि इसमें सुनाई देगी।

संसद के बजट सत्र और बाहरी राजनीति को मिलाकर देखें तो कुछ बातें दिखाई पड़ेंगी

· देश की अर्थ-व्यवस्था नाजुक दौर से गुजर रही है। बेशक हम दुनिया की सबसे तेज अर्थ-व्यवस्था बनते जा रहे हैं, पर उस गति को प्राप्त करने के लिए आवश्यक संस्थागत सुधार अभी हम नहीं कर पाए हैं।

· संसद के भीतर और बाहर राजनीतिक गतिविधियाँ तेज हो रही हैं। भारतीय जनता पार्टी अभी पूरी तरह जम नहीं पाई है और कांग्रेस अभी पूरी तरह परास्त नहीं है। अगले दो महीने में देश निर्णायक विजय-पराजय की और बढ़ेगा।

· भारतीय जनता पार्टी को सन 2016 में जिन कारणों से विजय मिली उन्हें लेकर पार्टी के भीतर अभी स्पष्टता दिखाई नहीं पड़ती। आर्थिक और सामाजिक-सांस्कृतिक सवाल गड्ड-मड्ड हो रहे हैं। हाल में जाट-आरक्षण आंदोलन और जेएनयू प्रकरण ने इस असमंजस को बढ़ाया है।

Saturday, December 12, 2015

निजी विधेयकों का रास्ता बंद क्यों?

प्रमोद जोशी

भारत की संसद
Image copyrightAP
इस साल अप्रैल में ट्रांसजेंडर लोगों के अधिकारों की रक्षा के लिए क़ानून बनने की राह निजी विधेयक की मदद से खुली थी. राज्यसभा ने द्रमुक सांसद टी शिवा के इस आशय के विधेयक को पास किया.
ये विधेयक इसलिए महत्वपूर्ण था क्योंकि लगभग 45 साल बाद किसी सदन ने निजी विधेयक पास किया था. पिछले हफ़्ते राज्यसभा में 14 निजी विधेयक पेश किए गए और लोकसभा में 30. इनमें सरकारी हिंदी को आसान बनाने, बढ़ते प्रदूषण पर रोक लगाने, मतदान को अनिवार्य करने से लेकर इंटरनेट की 'लत' रोकने तक के मामले हैं.
राज्यसभा सदस्य कनिमोझी सदन में मृत्युदंड ख़त्म करने से जुड़ा विधेयक लाना चाहती हैं जिसके प्रारूप पर अभी विचार-विमर्श हो रहा है. कांग्रेस सांसद शशि थरूर धारा 377 में बदलाव के लिए विधेयक ला रहे हैं.
शशि थरूरImage copyrightPIB
निजी विधेयक सामाजिक आकांक्षाओं को व्यक्त करते हैं और सरकार का ध्यान किसी ख़ास पहलू की ओर खींचते हैं.
जागरूकता के प्रतीक रहे भारतीय संसद के पहले 18 साल में 14 क़ानूनों का निजी विधेयकों की मदद से बनना और उसके बाद 45 साल तक किसी क़ानून का नहीं बनना किस बात की ओर इशारा करता है? क़ानून बनाने की ज़िम्मेदारी धीरे-धीरे सरकार के पास चली गई है.
निजी विधेयक क़ानून बनाने से ज़्यादा सामाजिक जागरुकता की ओर इशारा करते हैं और इस पर ध्यान देने की ज़रूरत है.
भारत की संसदImage copyrightReuters
भारतीय संसद क़ानून बनाती है. शक्ति पृथक्करण के सिद्धांत पर वह कार्यपालिका से स्वतंत्र है, पर उस तरह नहीं जैसी अमरीकी अध्यक्षात्मक प्रणाली है.
हमारी संसद में सरकारी विधेयकों के अलावा सदस्यों को व्यक्तिगत रूप से विधेयक पेश करने का अधिकार है लेकिन विधायिका का काफ़ी काम कार्यपालिका यानी सरकार ही तय करती है. एक तरह से पार्टी लाइन ही क़ानूनों की दिशा तय करती है.

Wednesday, December 2, 2015

The decline of the Indian Parliament

The Lok Sabha has been progressively setting aside fewer days to meet, and meeting even less on those allotted days


Photo: Hindustan Times
Photo: Hindustan Times
The Lok Sabha—the running of which rests with representatives elected by the people of India—has been in a perennial state of decline. It has been progressively setting aside fewer days to meet, and meeting even less on those allotted days. As a result, it is squabbling more and discussing less, and then trying to make up for lost time by pushing through legislation faster. Even the current majority government has failed to rewrite that script.
Parliament is convening, and sitting, for fewer days
The first Congress government in 1952 and the last Congress-led government in 2009 were both in power for about 1,800 days. But the 1952 group of MPs spent almost twice as many days in the Lok Sabha as the 2009 group. This decline has been progressive during these 57 years, across governments. Even the currenty Bharatiya Janata Party (BJP)-led government is averaging numbers similar to those of the last two Congress-led governments.
The effect is felt less in the quantity of legislation…
Measured in terms of government tenure, the number of bills being passed by Lok Sabhas in the past decade has seen a 20-40% drop over the first two. However, measured in terms of how much Parliament meets, there has not been a corresponding drop in bills passed. This suggests that the Lok Sabha is passing bills faster, raising questions about whether these pieces of legislation were adequately discussed before being cleared.
…and more in the quality of discourse that nourishes governance
Speaking in Parliament last week, Prime Minister Narendra Modi said “conversation and debates are the soul of Parliament”. That soul is under serious assault. Torn between the polarity of no work—caused by a hostile, tit-for-tat opposition—and the speedy passage of bills to make up for lost time, there’s virtually no time or inclination for discourse that richens a democracy.

Monday, August 18, 2014

मॉनसून सत्र तो ठीक गुज़रा, पर भावी टकराव का अंदेशा कायम है

 सोमवार, 18 अगस्त, 2014 को 12:43 IST तक के समाचार
सोलहवीं लोकसभा का पहला बजट सत्र पिछले चार साल का सबसे सकारात्मक सत्र रहा. लोकसभा ही नहीं, संसद के दोनों सदनों ने कम व्यवधान और ज्यादा काम का रिकॉर्ड बनाया.
पन्द्रहवीं लोकसभा के अंतिम सत्र में जितनी क्लिक करेंगहमा-गहमी और शोरगुल देखने को मिली थी, उसके मुकाबले इस बार का सत्र अपेक्षाकृत शांति और सद्भाव के माहौल में गुजरे हैं.
संसदीय कार्यवाही का बेहतर माहौल में चलना क्या संकेत दे रहा है? क्या इससे भविष्य की राजनीति को लेकर कोई संकेत दिख रहा है? क्या लंबे समय से लंबित विधेयकों को सरकार पास कराने की कोशिश करेगी?
इन्हीं सवालों के जवाब तलाशने की कोशिश की वरिष्ठ पत्रकार प्रमोद जोशी ने.

पढ़िए विस्तार से

संसद की बैठकें शुरू होने के पहले आशंका व्यक्त की जा रही थी कि बहुमत के चलते कहीं ऐसा न हो कि सरकार विमर्श के बगैर ही अपने फ़ैसले करके उन्हें पास कराने की औपचारिकता भर पूरी करे. फिलहाल ऐसा नहीं लगता. अच्छी बात यह है कि सदन में पहली बार आए सदस्यों में भारी उत्साह नज़र आया और प्रश्नोत्तर काल में भी सुधार हुआ.

हंगामों की विदाई

लोकसभा ने 27 बैठकों में 167 घंटे और राज्यसभा में 142 घंटे काम हुआ. व्यवधान में लोकसभा ने तकरीबन 14 घंटे गंवाए जिसकी भरपाई 28 घंटे से ज़्यादा समय अलग से बैठकर की गई.
क्लिक करेंराज्यसभा में हंगामे के कारण 34 घंटे काम काज नहीं हो सका, लेकिन उसने 38 घंटे अतिरिक्त काम करके उसकी भरपाई की. इसकी तुलना पन्द्रहवीं लोकसभा से करें तो सन 2010 का पूरा शीतकालीन सत्र हंगामे की भेंट चढ़ गया था और 2013 के बजट सत्र के दौरान सिर्फ 19 घंटे 36 मिनट काम हुआ था.
इस सत्र में दोनों सदनों ने न्यायिक नियुक्ति आयोग विधेयक और उससे जुड़े संविधान विधेयक को तकरीबन आम सहमति से पास किया, वहीं बीमा विधेयक को राज्यसभा ने प्रवर समिति को सौंप कर गहरी राजनीतिक असहमति का अहसास भी कराया है.
संसद के इस सत्र के शांति-सद्भाव और सहमति-असहमति से जुड़े कुछ सवाल भी उठे हैं, जिनके जवाबों मे भविष्य की राजनीति और प्रशासन की दिशा छिपी है. एक ओर संसदीय सद्भाव वापस हुआ है, वहीं राजनीति में टकराव के कुछ नए मोर्चे खुलते दिखाई पड़ रहे हैं.

आर्थिक उदारीकरण पर टकराव

इंश्योरेंस कानून में संशोधन को लेकर यूपीए और एनडीए के बीच टकराव व्यावहारिक राजनीति का है. सिद्धांततः दोनों पक्ष इंश्योरेंस में विदेशी निवेश को बढ़ाकर 49 फीसदी करना चाहते हैं. यह विधेयक यूपीए सरकार ने ही पेश किया था और पन्द्रहवीं लोकसभा ने इसे पास कर दिया था.
अभी श्रम कानूनों में बदलाव को लेकर राजनीतिक विरोध होगा. यूपीए सरकार भी इन कानूनों को पास कराना चाहती थी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वतंत्रता दिवस के भाषण में कहा कि दुनिया के देशों से कहें ‘कम एंड मेक इन इंडिया.’
मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर में विदेशी निवेश के लिए देश के श्रम कानूनों में बदलाव की बड़ी शर्त है. इससे जुड़े बदलावों को लाने के पहले सरकार को अलोकप्रियता का सामना करने को तैयार होना होगा.
खुदरा बाज़ार में विदेशी निवेश के यूपीए सरकार के फ़ैसले को हालांकि मोदी सरकार ने वापस नहीं किया है, पर यह साफ कर दिया है कि इसे हम लागू नहीं करेंगे. डब्ल्यूटीओ में टीएफए करार पर हाथ खींचकर भी सरकार ने कमोबेश ऐसा ही काम किया है.

कांग्रेस का अंदरूनी संकट

कांग्रेस पार्टी अभी तक नेतृत्व के संकट से उबर नहीं पाई है. लोकसभा चुनाव में पार्टी का नेतृत्व करने वाले राहुल गांधी सदन में पीठे की सीट पर बैठते हैं. इधर 6 अगस्त को अचानक सदन में उन्होंने आक्रामक रुख अपना लिया.
सांप्रदायिक हिंसा पर बहस की मांग को लेकर उन्होंने न सिर्फ अपना रोष प्रकट किया, बल्कि अन्य सांसदों के साथ अध्यक्ष के आसन के क़रीब तक पहुंच गए. उन्होंने अध्यक्ष पर पक्षपात के आरोप भी लगाए.
यह आक्रामकता केवल एक दिन तक सीमित थी. अगले दिन से वे फिर खामोश हो गए. ऐसा माना जा रहा है कि इंश्योरेंस कानून पर पार्टी के भीतर दो राय हैं. लोकसभा में पार्टी यों भी संख्या के लिहाज़ से कमज़ोर है. नेतृत्व का असमंजस उसे और कमज़ोर कर रहा है.

Wednesday, August 14, 2013

शोर संसदीय कर्म है, पर कितना शोर?

 बुधवार, 14 अगस्त, 2013 को 08:29 IST तक के समाचार
भारतीय संसद
संसद में होने वाले शोर को लेकर अकसर सवाल उठाए जाते हैं
सभी दलों की बैठक शांति से होती है. सदन को ठीक से चलाने पर आम राय भी बनती है. पर जैसे ही सुबह 11 बजे सदन शुरू होता है काम-काज अस्त-व्यस्त हो जाता है.
राजनीतिक विरोध के प्रश्नों पर टकराव स्वाभाविक है, पर वह भी ढंग से नहीं हो पाता. क्लिक करेंमानसून सत्र की अब तक की छह दिन की कार्यवाहियों में सबसे ज्यादा अवरोध तेलंगाना मसले के कारण हुआ.
इसका शिकार कोई न कोई महत्वपूर्ण मसला ही हुआ.क्लिक करेंतेलंगाना का मूल मसला भी इस विरोध प्रदर्शन के चलते पीछे चला गया. सोमवार को राज्यसभा ने विवाह के पंजीकरण को अनिवार्य बनाने वाले संशोधन विधेयक को पास कर दिया.
संसद में अब 16 अगस्त को अवकाश रहेगा. इसके बदले 24 अगस्त को संसद की बैठक होगी. 14 अगस्त के बाद संसद की अगली बैठक 20 अगस्त को होगी. उसके बदले 21 को अवकाश रहेगा.
शोर भी संसदीय कर्म है. पिछले साल कोयला खानों के आवंटन को लेकर संसद में व्यवधान पैदा करने वाले भाजपा नेताओं का यही कहना था. पर कितना शोर?
अंततः संसद विमर्श का फोरम है जिसके साथ विरोध-प्रदर्शन चलता है. पर संसद केवल विरोध प्रदर्शन का मंच नहीं है.

'अराजकता का संघ'

शोर के अलावा मर्यादा का मसला भी है. पिछले साल दिसंबर में राज्य सभा के सभापति हामिद अंसारी को लेकर बसपा नेता मायावती की टिप्पणी के कारण राज्य सभा में में असमंजस की स्थिति पैदा हो गई थी.
"हरेक नियम, हरेक शिष्टाचार का उल्लंघन हो रहा है. अगर माननीय सदस्य इसे ‘अराजकता का संघ’ बनाना चाहते हैं तो दीगर बात है."
हामिद अंसारी, राज्यसभा के सभापति
मंगलवार को भी सभापति हामिद अंसारी को कड़ी टिप्पणी करनी पड़ी, जिसे भाजपा के वरिष्ठ सदस्यों ने पसंद नहीं किया, बल्कि उन्होंने वो टिप्पणी वापस लेने की माँग की.
सदन में भाजपा सांसद सभापति के आदेशों की अनसुनी कर रहे थे. तभी हामिद अंसारी ने कहा, "हरेक नियम, हरेक शिष्टाचार का उल्लंघन हो रहा है. अगर माननीय सदस्य इसे ‘अराजकता का संघ’ बनाना चाहते हैं तो दीगर बात है."
इसके बाद भी हंगामा रुका नहीं और सदन स्थगित हो गया. बाद में जब फिर से सदन शुरू हुआ तो भाजपा के नेता अरुण जेटली और रविशंकर प्रसाद ने कहा कि सभापति यह टिप्पणी बिना शर्त वापस लें.

Friday, August 9, 2013

बहुत कठिन है डगर यूपीए की

 शुक्रवार, 9 अगस्त, 2013 को 07:41 IST तक के समाचार
भारतीय संसद
हालिया घटनाक्रम ने संसद सत्र के दौरान सरकार की मुश्किलें बढ़ा दी हैं
चार दिन की गहमा-गहमी के बाद संसद सोमवार तक के लिए स्थगित हो गई. पिछले सोमवार को आशा थी कि इस मॉनसून सत्र में कुछ कुछ संजीदा काम संभव होगा. पर चार दिन में सरकार केवल खाद्य सुरक्षा विधेयक पेश कर पाई.
दूसरी ओर राज्यसभा ने कंपनी कानून पास कर दिया. लोकसभा उसे पहले ही पास कर चुकी है.
कॉरपोरेट गवर्नेंस को बेहतर और पारदर्शी बनाने के लिए इस विधेयक का पास होना शुभ समाचार है. लगभग 57 साल पुराने इस कानून में बदलाव की जरूरत लम्बे अर्से से महसूस की जा रही थी.
राष्ट्रीय विकास, आर्थिक प्रगति और प्रशासनिक सुधार के लिए संसद के सामने पड़े दूसरे विधेयकों का निस्तारण भी इतना ही जरूरी है.
इस काम के लिए यूपीए को राजनीतिक समझदारी का परिचय देना होगा. और इतनी ही समझदारी पाकिस्तान के साथ रिश्तों को सामान्य बनाने में दिखानी होगी. यह बेहद संवेदनशील मसला है. और इसमें जोखिम उठाने होंगे.
चार दिन की राजनीतिक गतिविधियाँ इस बात का संकेत दे रही हैं कि आर्थिक उदारीकरण की गाड़ी को गति देना और पाकिस्तान के साथ रिश्तों को बेहतर बनाना तलवार की धार पर चलने के समान है.
दोनों में भारी राजनीतिक जोखिम हैं और दोनों का दक्षिण एशिया के आर्थिक-सामाजिक विकास के साथ गहरा रिश्ता है.
हिन्दू में सुरेन्द्र का कार्टून

सतीश आचार्य का कार्टून