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Sunday, July 15, 2018

रास्ते से भटक क्यों रहा है हमारा लोकतंत्र?

लोकतांत्रिक व्यवस्था की पारदर्शिता को लेकर हाल में दो खबरों से दो तरह के निष्कर्ष निकलते हैं। पिछले हफ्ते तरह केन्द्र ने उच्चतम न्यायालय को बताया कि देश भर में अदालती कार्यवाही का सीधा प्रसारण किया जा सकता है। प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा, न्यायमूर्ति ए एम खानविलकर और न्यायमूर्ति धनन्जय वाई चन्द्रचूड़ की तीन सदस्यीय खंडपीठ ने सभी पक्षकारों से कहा कि वे अदालत की कार्यवाही के सीधे प्रसारण के लिए दिशा निर्देश तैयार करने के बारे में अटार्नी जनरल केके वेणुगोपाल को अपने सुझाव दें। अटार्नी जनरल ने इससे पहले न्यायालय से कहा था कि अदालती कार्यवाही का सीधा प्रसारण दुनिया के अनेक देशों में एक स्वीकार्य परंपरा है। शीर्ष अदालत ने न्यायिक कार्यवाही में पारदर्शिता लाने के इरादे से पिछले साल प्रत्येक राज्य की निचली अदालतों और न्यायाधिकरणों में सीसीटीवी लगाने का निर्देश दिया था।

इस खबर के विपरीत  राज्यसभा के निवृत्तमान उप-सभापति पीजे कुरियन ने कहा कि संसद की कार्यवाही का सीधा प्रसारण बंद कर देना चाहिए, क्योंकि इससे सदन की छवि खराब होती है। कुरियन का कहना था कि सदन की कार्यवाही के दौरान भले ही पीठासीन अध्यक्ष असंसदीय शब्दों को रिकॉर्ड के बाहर कर देते हों, लेकिन डिजिटल मीडिया के इस दौर में ये बातें आसानी से जनता तक पहुंच जाती हैं। इस वजह से सदन में शालीनता और व्यवस्था कायम रखने की कोशिशें बेमतलब हो जाती हैं। उपरोक्त दोनों बातों को मिलाकर पढ़ें, तो क्या निष्कर्ष निकलता है?

Sunday, February 12, 2017

राजनीति तुर्की-ब-तुर्की

मुहावरा है तुर्की-ब-तुर्की। जिस अंदाज में बोलेंगे, जवाब उसी अंदाज में मिलेगा। शब्द अमर्यादित नहीं हैं तो उनपर आपत्ति नहीं होनी चाहिए। साथ ही राजनीति के मैदान में उतरे हैं तो खाल मोटी करनी होगी। किसी पर हमला करें तो जवाब सुनने के लिए तैयार भी रहना चाहिए। लोकसभा और राज्यसभा में प्रधानमंत्री के हाल के भाषण को लेकर कांग्रेस पार्टी ने मर्यादा के सवाल खड़े किए हैं। देर से ही सही मर्यादा का सवाल आया है, पर यह तब जब मनमोहन सिंह पर मोदी ने चुटकी ली। 

Saturday, February 11, 2017

संसदीय मर्यादा दो हाथों की ताली

संसदीय मर्यादाओं और राजनीतिक शब्दावली को लेकर गंभीर विमर्श की जरूरत दिनों-दिन बढ़ती जा रही है। इसकी जिम्मेदारी राजनीतिक दलों की है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को लेकर जो बात कही और उसे लेकर कांग्रेस पार्टी ने जो प्रतिक्रिया व्यक्त की, दोनों से साफ जाहिर है कि ताली एक हाथ से नहीं बज सकती। इस कटुता को रुकना चाहिए। और इसकी जगह गंभीर विमर्श को बढ़ाया जाना चाहिए।
गुजरात में सन 2007 के विधानसभा चुनाव की शुरुआत में सोनिया गांधी ने नरेंद्र मोदी को मौत का सौदागर कहा था। पिछले साल सर्जिकल स्ट्राइक के बाद राहुल गांधी ने खून की दलाली शब्दों का इस्तेमाल किया था। कोई मौका ऐसा नहीं होता, जब राजनीति में आमराय दिखाई पड़ती हो। बेशक सभी दलों के हित अलग-अलग हैं, पर कहीं और कभी तो आपसी सहमति भी होनी चाहिए।

Friday, February 10, 2017

मर्यादा एक तरफ से नहीं टूटी

लोकसभा राज्यसभा में प्रधानमंत्री के भाषण और उन्हें लेकर कांग्रेसी प्रतिक्रिया के साथ संसदीय मर्यादा के सवाल खड़े हुए हैं। राजनीतिक शब्दावली को लेकर संयम बरतने की जरूरत है। वोट की राजनीति ने समाज के ताने-बाने में कड़वाहट भर दी है। उसे दूर करने की जरूरत है। इस घटनाक्रम पर गौर करें तो पाएंगे कि इन बातों में क्रमबद्धता है। क्रिया की प्रतिक्रिया है। दोनों पक्ष एक-दूसरे को जवाब देना चाहते हैं। सवाल है कि क्या संसद इसी काम के लिए बनी है? 

प्रधानमंत्री ने राज्यसभा में मनमोहन सिंह पर ‘रेनकोट पहन कर नहाने’ के जिस रूपक इस्तेमाल किया, उसे कांग्रेस ने ‘तल्ख और बेहूदा’ करार दिया है। कांग्रेस चाहती है कि पूर्व प्रधानमंत्री की मर्यादाएं हैं। उनका सम्मान होना चाहिए। पर क्या कांग्रेस प्रधानमंत्री के पद की गरिमा को मानती है? राज्यसभा में मोदी के भाषण के दौरान विरोधी कुर्सियों से जिस तरह से टिप्पणियाँ हो रहीं थी क्या वह उचित था? संभव है कि यह किसी योजना के तहत नहीं हुआ हो, पर माहौल में उत्तेजना पहले से थी। बीच में एकबार वेंकैया नायडू ने उठकर कहा भी कि क्या यह ऐसे ही चलता रहेगा? क्या रनिंग कमेंट्री चलती रहेगी?

Monday, February 6, 2017

शोर के दौर में खो गया विमर्श

संसद के बजट सत्र का पहला दौर अब तक शांति से चल रहा है. उम्मीद है कि इस दौर के जो चार दिन बचे हैं उनका सकारात्मक इस्तेमाल होगा. चूंकि देश के ज्यादातर प्रमुख नेता विधानसभा चुनावों में व्यस्त हैं, इसलिए संसद में नाटकीय घटनाक्रम का अंदेशा नहीं है, पर समय विचार-विमर्श का है. बजट सत्र के दोनों दौरों के अंतराल में संसद की स्थायी समितियाँ विभिन्न मंत्रालयों की अनुदान माँगों पर विचार करेंगी. जरूरत देश के सामाजिक विमर्श की भी है, जो दिखाई और सुनाई नहीं पड़ता है. जरूरत इस बात की है कि संसद वैचारिक विमर्श का प्रस्थान बिन्दु बने. वह बहस देश के कोने-कोने तक जाए.