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Tuesday, September 7, 2010

कहाँ गया हमारा सामाजिक संवाद



नया दौर सन 1957 की हिन्दी फिल्म है। उसमें औद्योगिक बदलाव और सामाजिक परिस्थितियों का सवाल उठा था। फिल्म का नायक शंकर(दिलीप कुमार) मोटर गाड़ी के मुकाबले अपने तांगे को दौड़ाने की चुनौती स्वीकार करता है। उसकी मदद में आता है अखबार का रिपोर्टर शहरी बाबू जॉनी वॉकर। आजादी के करीब एक दशक पहले और डेढ़-दो दशक बाद तक खासतौर से पचास के पूरे दशक में हमारे वृहत् सामाजिक-सरोकारों को शक्ल लेने का मौका मिला। अभिनेताओं, संगीतकारों, लेखकों, कवियों और शायरों की जमात ने पूरे देश को सराबोर कर दिया। हिन्दी फिल्मी गीतों ने जैसा असर भारतीय समाज पर डाला उसकी दुनिया में मिसाल नहीं मिलेगी। यह सोशल डिसकोर्स या सामाजिक-विमर्श जारी था। उसमें तमाम संदेश छिपे थे। पर इसमें गुणात्मक अंतर आया है। यह अंतर है संदेशवाहक की बदली भूमिका का। सिनेमा, रेडियो और अखबार हमारा शुरूआती मास-मीडिया था। तीनों में एक खास तरह का जोशो-ज़ुनून था। सरकारी होने के बावज़ूद हमारे रेडियो का भी खास अंदाज़ था। कम से कम वह सही वक्त बताता था, शुद्ध खबरें और अच्छे लेखकों, संगीतकारों और कलाकारों को अभिव्यक्ति का मौका देता था।

नब्बे के दशक तक भारतीय मीडिया के सामाजिक सरोकार उतने भटके हुए नहीं थे, जितने आज लगते हैं। सत्तर के दशक में देश ने बांग्लादेश की लड़ाई के अलावा भ्रष्टाचार के खिलाफ गुजरात और बिहार-आंदोलन, नक्सली आंदोलन, जेपी-आंदोलन, इमर्जेंसी और उसके बाद संवैधानिक सुधार के आंदोलन देखे। अस्सी का दशक जबर्दस्त खूंरेज़ी और संकीर्णता लेकर आया। खालिस्तानी आंदोलन और उसके दमन ने मीडिया को साँसत में डाल दिया। एक ओर आतंकी धमकी दूसरी ओर राज-व्यवस्था का दबाव। फिर मंडल और कमंडल आए। इसने हालांकि हमारी सामाजिक बुनियाद पर असर डाला, पर सार्वजनिक विमर्श का स्तर कमज़ोर हो गया।

टेलीविज़न सत्तर के दशक में ही आ चुका था, पर नब्बे के दशक में दूरदर्शन में कुछ बाहरी कार्यक्रम शुरू होने से ताज़गी का झोंका आया। इसके बाद निजी चैनलों की क्रांति शुरू हुई, जो अभी जारी है। पर इस क्रांति ने बजाय सामाजिक-विमर्श को कोई नई दिशा देने के दर्शक के सामने कपोल-कल्पनाओं, सनसनी और अंधी मौज-मस्ती की थालियां सजा दीं। इसकी सबसे बड़ी वजह वह उपभोक्ता बाज़ार था, जिसके विज्ञापनों की बौछार होने वाली थी। 1995 में एक साथ दो भारत सुंदरियाँ मिस वर्ल्ड और मिस युनीवर्स बनाई गईं। यह सिर्फ संयोग नहीं था। टीवी के सोप ऑपेरा में हम लोग और बुनियाद के सीधे-सच्चे पात्रों की जगह लिपे-पुते मॉडल अभिनय करने के लिए मैदान में कूद पड़े। उनके मसले बदल गए। पहली बार चैनलों ने खबरें पढ़ने के लिए पत्रकारों की जगह मॉडलों को बैठाया। ऐसा दुनिया में कहीं और हुआ, मुझे पता नहीं।

देश के मीडिया से राष्ट्रीय महत्व के मसले इसके पहले इमर्जेंसी के दौर में गायब हुए थे। उन दिनों फिल्म और खेल की सामग्री अखबारों में बढ़ गई थी। राजनैतिक गतिविधियों को रिपोर्ट करने में जोखिम था, बल्कि अनुमति नहीं थी। अब तो वह बात नहीं है। इस वक्त प्राथमिकता बदली हुई है। हाल में पीपली लाइव और उसके कुछ पहले रणने विचार-विमर्श का मौका दिया है। इस बार एक मीडिया ने दूसरे मीडिया की खबर ली है। टीवी भी चाहे तो सिनेमा की वास्तविकता को दिखा सकता है, पर वह दिखाना नहीं चाहेगा। टीवी या अखबारों में बॉलीवुड की कवरेज प्रचारात्मक होती है, विश्लेषणात्मक नहीं। इस वक्त अखबार, टीवी और सिनेमा तीनों से एक साथ सामाजिक-विमर्श गायब हुआ है। वह इंटरनेट के रास्ते सिर उठा रहा है, पर इंटरनेट की व्याप्ति अभी सीमित है।

हमारे सिनेमा ने अछूत कन्या, दो बीघा ज़मान, प्यासा, आवारा, श्री 420, जागते रहो, मदर इंडिया, नीचा नगर, गरम कोट, सुजाता, इंसान जाग उठा, पड़ोसी और दो आँखें बारह हाथ जैसी तमाम फिल्में दीं और सब सफल हुईं। यह सूची सत्यकाम और गर्म हवा तक आती है। सत्तर के दशक में श्याम बेनेगल की अंकुर और निशांत ने सिनेमा को नया आयाम दिया। गोविन्द निहलानी ने आक्रोश, पार्टी, अर्ध सत्य, तमस और हजार चौरासी की माँ, प्रकाश झा ने दामुल, मृत्युदंड, गंगाजल, अपहरण और अब राजनीति बनाई। एक ज़माने तक फिल्मों में पत्रकार और नेता बड़े आदर्शवादी और प्रायः लड़ाई जीतने वाले होते थे। धीरे-धीरे फिल्मों के आदर्शवादी पत्रकार पात्र संकट में आने लगे या फिर व्यवस्था का हिस्सा बन गए। रमेश शर्मा और गुलज़ार की न्यू डेल्ही टाइम्स ऐसी ही फिल्म थी। कुंदन शाह की जाने भी दो यारो के पत्रकार धंधेबाज़ हैं। पेज थ्री में कोंकणा सेन शर्मा इस कारोबार के द्वंद में फँसी रह जाती है।

मीडिया के अंतर्विरोधों को बेहतर शोध और रचनात्मक प्रतिभा के मार्फत सामाजिक विमर्श का माध्यम बनाया जा सकता है। जनता जानना चाहती है। पत्रकार, नेता और अभिनेता जिस ज़मीन पर खड़े हैं वह काल्पनिक नहीं है। उसके सच और उसके अंतर्विरोध सामने आने चाहिए। यह आत्मविश्लेषण मीडिया को ही करना है। आश्चर्यजनक यह है कि टेलीविजन और अखबार इन विषयों को अपनी कवरेज का विषय नहीं बनाते। ऐसा भी नहीं कि उसमें शामिल लोग इस पर चर्चा करना न चाहते हों। मीडिया के जिन लोगों से मेरी बात होती है, उनमें से ज्यादातर अपने आप से संतुष्ट नहीं होते। वे ज्यादा से ज्यादा यह बताने का प्रयास करते हैं कि अभी शुरुआत है। हम अपने पैर जमा रहे हैं। ये बातें जल्द खत्म हो जाएंगी। टीवी के मामले में यह बात समझ में आती है। यह मीडिया अपेक्षाकृत नया है। उसने अपनी औपचारिक या अनौपचारिक आचार संहिता तैयार नहीं की है। पर प्रिंट मीडिया को तो अपना स्पेस नहीं छोड़ना चाहिए। यह सोचना गलत है कि जनता गहरे मसलों को पढ़ना नहीं चाहती। दरअसल हमें ज्यादा मेहनत करने की ज़रूरत है। 

मीडिया में कंटेंट यानी सामग्री की उपेक्षा को लेकर चिंता व्यक्त करने वालों में ज्यादातर लोग पत्रकार या लेखक हैं। कारोबारी लोगों की चिंता के कारण वही नहीं होते जो लेखक-पत्रकार और पाठक के होते हैं। पर कारोबारी समझ को ही कंटेंट की महत्ता समझनी चाहिए। इस वक्त जो भी सफल अखबार हैं, वे कंटेंट में ही सफल हैं। और कंटेंट निरंतर सुधरना चाहिए। अखबारों का इनवेस्टमेंट कवरेज में सुधार पर बढ़ना चाहिए। हिन्दी अखबारों को तमाम नए विषयों के विशेषज्ञों की पत्रकार के रूप में ज़रूरत है। अखबार अपने बिजनेस के लिए बड़े वेतन पर एमबीए लाना चाहते हैं। पर पत्रकारों को सस्ते में निपटाना चाहते हैं। खासतौर से भाषायी पत्रकारों के साथ ऐसा ही हो रहा है।
भारतीय भाषा के पत्रकारों के ऊपर सामाजिक-विमर्श को आगे ले जाने की ज़िम्मेदारी है। भारतीय भाषाओं के पाठक ही संख्या में बढ़ रहे हैं। अखबार सिर्फ खबर नहीं देता। वह अपने पाठक से संवाद करता है। उसे शिक्षित करता है, दिशा देता है। नए पत्रकार को उसके सामाजिक संदर्भों की जानकारी देना उसके संस्थान का काम है। मुझे नहीं लगता कि ऐसा कोई विचार आज अखबारों की विस्तार-योजना में शामिल है। इसकी एक वजह है कारोबारी समझ। मेरे विचार से अखबारों का कारोबार देखने वालों को भी पत्रकारिता के वैल्यू सिस्टम की ट्रेनिंग दी जानी चाहिए। पत्रकारों की ट्रेनिंग में सामाजिक जिम्मेदारी का भाव खत्म हो गया है। अखबार को प्रोडक्ट कहना ही इस जिम्मेदारी का गला दबोचना है।    


समाचार फॉर मीडिया डॉट कॉम में प्रकाशित