नोटबंदी के बाद करीब तीन महीने के मंदे के बावजूद लोगों की
उम्मीदें सकारात्मक बदलावों पर टिकी हैं। केंद्र सरकार के लिए सन 2019 के चुनाव के
पहले अगले दो साल के बजट बेहद महत्वपूर्ण हैं। इसबार का बजट पाँच राज्यों के चुनाव
के ठीक पहले है। देखना होगा कि सरकार लोक-लुभावन रास्ता पकड़ेगी या अर्थ-व्यवस्था
को सुदृढ़ करते हुए दीर्घकालीन रणनीति का। चूंकि चुनाव के ठीक पहले बजट आ रहा है
इसलिए सुप्रीम कोर्ट और चुनाव आयोग की चेतावनियों की तलवार भी उसपर लटक रही है। पर
राजनीति का तकाजा है कि सरकार किसी न किसी रूप में रियायतों का पिटारा खोलेगी। पर देश
को इंतजार उस आर्थिक उछाल का है, जिसमें हमारी समस्याओं का समाधान निहित है।
Showing posts with label हरिभूमि. Show all posts
Showing posts with label हरिभूमि. Show all posts
Sunday, January 29, 2017
Friday, January 27, 2017
हम लाए हैं तूफान से कश्ती निकाल के...
आज के दोष कल दूर होंगे
संयोग है कि इस
साल के गणतंत्र दिवस के आसपास राष्ट्रीय महत्व की दो परिघटनाएं और हो रही हैं।
पहली है विमुद्रीकरण की प्रक्रिया, जो दुनिया में पहली बार अपने किस्म की सबसे
बड़ी गतिविधि है। यह ऐसी गतिविधि है, जिसने प्रत्यक्ष या परोक्ष देश के प्रायः
हरेक नागरिक को छुआ है, भले ही वह बच्चा हो या बूढ़ा। इस अनुभव से हम अभी गुजर ही
रहे हैं। इसके निहितार्थ क्या हैं, इसमें हमने क्या खोया या क्या पाया, यह इस लेख
का विषय नहीं है। यहाँ केवल इतना रेखांकित करने की इच्छा है कि हम जो कुछ भी करते
हैं, वह दुनिया की सबसे बड़ी गतिविधि होती है, क्योंकि हम दुनिया के सबसे बड़े
लोकतंत्र हैं।
बेशक चीन की
आबादी हमसे ज्यादा है, पर वहाँ लोकतंत्र नहीं है। लोकतंत्र के अच्छे और खराब
अनुभवों से हम गुजर रहे हैं। लोकतंत्र के पास यदि वैश्विक समस्याओं का समाधान है
तो वह भारत से ही निकलेगा, अमेरिका, यूरोप या चीन से नहीं। क्योंकि इतिहास के एक
खास मोड़ पर हमने लोकतंत्र को अपने लिए अपनाया और खुद को गणतंत्र घोषित किया।
गणतंत्र माने जनता का शासन। यह राजतंत्र नहीं है और न किसी किस्म की तानाशाही।
भारत एक माने में और महत्वपूर्ण है। दुनिया की सबसे बड़ी विविधता इस देश में ही
है। संसार के सारे धर्म, भाषाएं, प्रजातियाँ और संस्कृतियाँ भारत में हैं। इस
विशाल विविधता को किस तरह एकता के धागे से बाँधकर रखा जा सकता है, यह भी हमें
दिखाना है और हम दिखा रहे हैं।
Sunday, January 22, 2017
असमंजस में कांग्रेस
जिस तरह पाँच राज्यों के विधानसभा चुनाव बीजेपी के लिए मध्यावधि जनादेश का काम
करेंगे उसी तरह वे कांग्रेस को भी अपनी ताकत को तोलने का मौका देंगे। सन 2014 के
बाद से उसकी लोकप्रियता में लगातार गिरावट आई है। यह पहला मौका है जब पार्टी को सकारात्मकता
दिखाई पड़ती है। उसे पंजाब में अपनी वापसी, उत्तराखंड में फिर से अपनी सरकार और
उत्तर प्रदेश में सुधार की संभावना नजर आ रही है। गोवा में भी उसे अपनी स्थिति को
सुधारने का मौका नजर आता है। पर उसके चारों सपने टूट भी सकते हैं। जिसका मतलब होगा
कि 2019 के सपनों की छुट्टी। रसातल में जाना सुनिश्चित।
Sunday, January 15, 2017
चुनावी पारदर्शिता के सवाल
पाँच राज्यों के विधानसभा चुनाव राजनीतिक दलों के लिए सत्ता
की लड़ाई है। वोटर के लिए उसका मतलब क्या
है? चुनाव-प्रक्रिया में सुधार जीवन में बदलाव लाने का महत्वपूर्ण रास्ता है।
बावजूद इसके चुनाव सुधारों का
मसला चुनावों का विषय नहीं बनता। तमाम नकारात्मक बातों के बीच यह सच है कि पिछले
दो दशक में हमारी चुनाव-प्रणाली में काफी सुधार हुए हैं। एक जमाने में बूथ
कैप्चरिंग और रिगिंग का बोलबाला था। अब प्रत्याशियों की जवाबदेही बढ़ी है। क्यों न
इन चुनावों में हम पारदर्शिता के सवाल उठाएं।
Sunday, January 8, 2017
राष्ट्रीय सवालों का मध्यावधि जनादेश
फरवरी-मार्च में होने वाले पाँच राज्यों के विधानसभा चुनाव एक तरह से केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार के लिए मध्यावधि जनादेश का काम करेंगे। आमतौर पर विधानसभा चुनावों में स्थानीय मुद्दे ज्यादा महत्वपूर्ण होते हैं। खासतौर से नब्बे के दशक से राज्यों के स्थानीय नेतृत्व का उभार हुआ है, जिसके कारण राज्य-केंद्रित मसले आगे आ गए हैं। पर इसबार लगता है कि चुनाव राष्ट्रीय मुद्दों पर लड़ा जाएगी। मणिपुर को छोड़ दें तो शेष चारों राज्यों की राजनीति फिलहाल केंद्रीय राजनीति के समांतर चल रही है। इसकी एक वजह बीजेपी की मोदी-केंद्रित रणनीति भी है।
नरेंद्र मोदी की सन 2014 की सफलता का प्रभाव अब भी कायम है। उसकी सबसे बड़ी परीक्षा इसबार उत्तर प्रदेश में होगी, जो राष्ट्रीय राजनीति के लिहाज से देश का सबसे महत्वपूर्ण राज्य है। इन चुनावों के राष्ट्रीय महत्व की झलक उस प्रयास में देखी जा सकती है, जो एनडीए के समांतर एक राष्ट्रीय गठबंधन बनाने की कोशिश कर रहा है। इन चुनावों के ठीक पहले आम बजट पेश होने वाला है। इसे लेकर विरोधी दलों की लामबंदी उस प्रयास का एक हिस्सा है। यही वजह है कि बजट-विरोधी मुहिम में तृणमूल कांग्रेस और शिवसेना जैसी पार्टियाँ आगे हैं।
नरेंद्र मोदी की सन 2014 की सफलता का प्रभाव अब भी कायम है। उसकी सबसे बड़ी परीक्षा इसबार उत्तर प्रदेश में होगी, जो राष्ट्रीय राजनीति के लिहाज से देश का सबसे महत्वपूर्ण राज्य है। इन चुनावों के राष्ट्रीय महत्व की झलक उस प्रयास में देखी जा सकती है, जो एनडीए के समांतर एक राष्ट्रीय गठबंधन बनाने की कोशिश कर रहा है। इन चुनावों के ठीक पहले आम बजट पेश होने वाला है। इसे लेकर विरोधी दलों की लामबंदी उस प्रयास का एक हिस्सा है। यही वजह है कि बजट-विरोधी मुहिम में तृणमूल कांग्रेस और शिवसेना जैसी पार्टियाँ आगे हैं।
Sunday, January 1, 2017
इस साल राहें आसान होंगी
भारत के लिए गुजरा साल जबर्दस्त उठा-पटक वाला था। साल की शुरुआत पठानकोट पर
हमले के साथ हुई और अंत विमुद्रीकरण और यूपी में सपा के पारिवारिक संग्राम के साथ
हुआ। एक तरफ देश की सुरक्षा और विदेश नीति के सवाल थे, वहीं अर्थ-व्यवस्था और
राजनीति में गहमा-गहमी थी। हमने पथरीला रास्ता पार कर लिया है। यह साल सफलताओं का
साल साबित होने वाला है। अब राह आसान है और नेपथ्य का संगीत बदल रहा है।
Sunday, December 25, 2016
तिराहे पर खड़ा देश
भारत के लिए यह साल बेहद उथल-पुथल
वाला साल रहा। इस साल देश के नाम तीन तरह के संदेश थे। पहला अपनी आर्थिक स्थिति को
सुधारने का। दूसरा, अंतरराष्ट्रीय रिश्तों को ठीक करने का और तीसरा आंतरिक राजनीति
और लोकतंत्र के नाम। तीनों मोर्चों पर जबर्दस्त जद्दो-जहद देखने को मिली। आर्थिक
रूप से इस साल देश ने उदारीकरण की दिशा में दो बड़े फैसले किए। पहला था जीएसटी से
जुड़े संविधान संशोधन को संसद की स्वीकृति। और दूसरा था 8 नवंबर को घोषित
विमुद्रीकरण। दोनों के फायदे आने वाले वर्षों में देखने को मिलेंगे।
Sunday, December 18, 2016
नोटबंदी के बाद अब क्या हो?
नरेंद्र मोदी कोई बड़ा काम करना चाहते हैं। ऐसा उनकी शैली से पता लगता है। नोटबंदी का उनका फैसला बताता है कि इसके पीछे पूरी व्यवस्था के साथ व्यापक विमर्श नहीं किया गया होगा। विचार-विमर्श हुआ होता तो शायद दिक्कतें इस कदर नहीं होतीं। इसमें बरती गई गोपनीयता का क्या मतलब है अभी यह भी समझ में नहीं आया है। यह भी दिखाई पड़ रहा है कि अर्थ-व्यवस्था की गति इससे धीमी होगी और छोटे कामगारों को दिक्कतें होंगी। पर ये दोनों बातें लंबे समय की नहीं हैं। हालांकि अभी आँकड़े उपलब्ध नहीं हैं, पर अनुमान है कि दो से तीन लाख करोड़ रुपए तक की राशि एकाउंटिंग में आएगी। वास्तव में ऐसा होने के बाद ही बात करनी चाहिए। यदि ऐसा हुआ तो भविष्य में राजस्व में काफी वृद्धि होगी। इसके साथ ही दबाव में या समय की जरूरत को देखते हुए डिजिटाइजेशन की प्रक्रिया तेज होगी। डिजिटाइजेशन भी व्यवस्था को पारदर्शी बनाने में मददगार होगा।
इस नोटबंदी ने व्यवस्था पर हावी ताकतों पर से भी पर्दा उठाया है। वकीलों, चार्टर एकाउंटेंटों, बैंक अफसरों, हवाला कारोबारियों, बिल्डरों, सर्राफों और कुल मिलाकर राजनेताओं की पकड़ और पहुँच का पता भी इस दौरान लगा है। भविष्य की व्यवस्था में इन बातों से बचने के रास्ते भी खोजने होंगे। व्यवस्था के दोष खुलते हैं तो उसे ठीक करने के रास्ते भी बनते हैं। ऐसा नहीं है कि अंधेर पूरी तरह अंधेर ही बना रहे। राजनीतिक दलों, धार्मिक ट्रस्टों और इसी प्रकार की संस्थाओं को मिली छूटों के बारे में ध्यान देने की जरूरत है। हम लोग शिकायतें बहुत करते हैं, पर जब संसदीय समितियाँ किसी सवाल पर आपकी राय माँगती हैं, तब आगे नहीं आते। फेसबुक और ट्विटर पर गालियाँ देते हैं। व्यवस्था में नागरिक की भागीदारी होगी तो अंधेर इतना आसान नहीं होगा। बाढ़ के वक्त नदी का पानी गंदला होता है, पर कुछ समय बाद वह साफ भी होता है। बदलाव की धारा का श्रेय केवल मोदी को नहीं दिया जाना चाहिए। यूपीए सरकार ने सन 2009 के बाद उदारीकरण की गति को धीमा कर दिया था। मोदी सरकार ने यूपीए के छोड़े कामों को ही पूरा करना शुरू किया है। उसकी हिम्मत भी दिखाई है। पर सच यह है कि हमारी राजनीति उदारीकरण को मुद्दा बना नहीं पाई है।
शीत सत्र भी पूरी तरह धुल गया। लोकसभा ने मुकर्रर समय में
से केवल 15 फीसदी और राज्यसभा ने 18 फीसदी काम किया। लोकसभा में 07 घंटे और
राज्यसभा में 101 घंटे शोरगुल की भेंट चढ़े। राज्यसभा में प्रश्नोत्तर काल के लिए
सूचीबद्ध 330 प्रश्नों में से केवल दो का जवाब मौखिक रूप से दिया जा सका। लोकसभा में
केवल 11 फीसदी सूचीबद्ध सवालों के जवाब मौखिक रूप से दिए जा सके। संसदीय कर्म के
सारे मानकों पर यह सत्र विफल रहा। वह भी ऐसे मौके पर जब देश अपने नेताओं का मुँह
जोह रहा था कि वे रास्ता बताएं।
Sunday, December 11, 2016
संसदीय गरिमा को बचाओ
राहुल गांधी कहते
हैं, ‘सरकार मुझे संसद में
बोलने नहीं दे रही। मैं बोलूँगा तो भूचाल आ जाएगा।’ और अब प्रधानमंत्री भी कह रहे हैं कि मुझे बोलने नहीं
दिया जाता। उधर पीआरएस के आँकड़ों के अनुसार संसद
के शीत सत्र में लोकसभा में 16 और राज्यसभा में 19 फीसदी काम हुआ है। लोकसभा में
जो भी काम हुआ उसका एक तिहाई प्रश्नोत्तर के रूप में है। राज्यसभा में प्रश्नोत्तर
हो ही नहीं पाए। लोकसभा ने इस दौरान आयकर से जुड़ा एक संशोधन विधेयक पास किया, जो
केवल 10 मिनट में पास हो गया। यह सत्र 16 दिसंबर तक चलना है। सोमवार और मंगल को
अवकाश हैं। अब सिर्फ तीन दिन बचे हैं।
संसद के न चलने की वजह केवल विपक्ष नहीं है। इसमें सरकार की भी भूमिका है। संसदीय गरिमा की रक्षा करना दोनों की जिम्मेदारी है। सुनाई पड़ रहा है
कि सरकार और विपक्ष के बीच बचे हुए समय के सदुपयोग पर सहमति बनी है, पर सच यह है कि
काफी कीमती समय बर्बाद हो गया है। एक बौद्धिक तबक़ा कहता है कि
राजनीति में शोर है तो उसे दिखाना और सुनाना भी चाहिए। सड़क पर शोर है तो संसद में
क्यों नहीं?
शोर के सांकेतिक अर्थ महत्वपूर्ण हैं। पर यदि वह पूरे के पूरे सत्र को बहा ले जाए
तो उसका कोई मतलब भी नहीं रह जाता। और वह शोर निरर्थक हो जाता है और संसद भी।
Sunday, December 4, 2016
कहीं उल्टा न पड़े ममता का तैश और तमाशा
ममता बनर्जी की छवि तैश में रहने वाली नेता की है।
मूलतः वे स्ट्रीट फाइटर हैं। उन्हें इस बात का श्रेय जाता है कि उन्होंने वाम
मोर्चा के मजबूत गढ़ को गिरा कर दिखा दिया। और यही तथ्य उन्हें लगातार उत्तेजित
बनाकर रखता है। वाम मोर्चा अब सत्ता से बाहर है, पर ‘ममता स्टाइल ऑफ पॉलिटिक्स’ की साख बनाए रखने के लिए उन्हें
कुछ न कुछ करते रहना पड़ता है। केंद्र सरकार के नोटबंदी कार्यक्रम ने उन्हें इसका मौका
दिया है।
Sunday, November 20, 2016
नोटबंदी साध्य नहीं, साधन है
नरेन्द्र मोदी ने 8 नवम्बर के
संदेश और उसके बाद के भाषणों में इस बात को कहा है कि सार्वजनिक जीवन में
भ्रष्टाचार के खिलाफ मैं बड़ी लड़ाई लड़ना चाहता हूँ। बहुत से लोगों को उनकी बात
पर यकीन नहीं है, पर जिन्हें यकीन है उनकी तादाद भी कम नहीं है। मोदी ने कहा है कि
मुझे कम से कम 50 दिन दो। भारतीय जनता के मूड को देखें तो वह उन्हें पचास दिन नहीं
पाँच साल देने को तैयार है, बशर्ते उस काम को पूरा करें, जिसका वादा है। सन 1971
और 1977 में देश की जनता ने सत्ताधारियों को ताकत देने में देर नहीं लगाई थी।
नोटबंदी की घोषणा होने के बाद से कांग्रेस सहित ज्यादातर
विरोधी दलों ने आंदोलन का रुख अख्तियार किया है। वे जनता की दिक्कतों को रेखांकित
कर रहे हैं। भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ने वाले अरविन्द केजरीवाल भी इस फैसले
के खिलाफ हैं। उनका कहना है कि यह फैसला खुद में बड़ा स्कैम है। कहा यह भी जा रहा
है कि बीजेपी ने नोटबंदी की चाल अपने राजनीतिक प्रतिस्पर्धियों को यूपी में मात
देने के लिए चली है। बीजेपी ने अपना इंतजाम करने के बाद विरोधियों को चौपट कर दिया
है।
Sunday, November 13, 2016
काले धन पर वार तो यह है
काफी लोगों को समझ में नहीं आ रहा
है कि नोटों को बदल देने से काला धन कैसे बाहर आ जाएगा। अक्सर हम काले धन का मतलब
भी नहीं जानते हैं। कुछ लोगों को लगता है कि बड़ी मात्रा में किसी के पास कैश हो तो वह काला धन है। कैश का
मतलब हमेशा काला धन नहीं है। पर प्रायः कैश के रूप में काला धन होता है। यदि नकदी
का विवरण किसी के पास है और वह व्यक्ति उसमें से उपयुक्त राशि टैक्स वगैरह के रूप
में जमा करता है तो वह काला धन नहीं है।
फिलहाल दुनिया में समझ यह बन रही है कि लेन-देन को नकदी के बजाय औपचारिक रिकॉर्डेड तरीके से करना सम्भव हो तो 'काले धन' का बनना कम हो जाएगा। इनफॉर्मेशन तकनीक ने इसे सम्भव बना दिया है। भारत में गरीबी, अशिक्षा और तकनीकी नेटवर्क के अधूरे विस्तार के कारण दिक्कतें हैं। उन्हें दूर करने की कोशिश तो करनी ही होगी।
Sunday, November 6, 2016
उम्मीद की किरण है जीएसटी
लम्बे अरसे से टलती
जा रही जीएसटी व्यवस्था आखिरकार शक्ल लेने लगी है। पिछले गुरुवार को जीएसटी कौंसिल
ने आम सहमति से टैक्स की चार दरों पर सहमति कायम करके एक बड़ा मुकाम हासिल कर लिया
है। अब जो सबसे जटिल मसला है वह यह कि इस राजस्व के वितरण का फॉर्मूला क्या होगा।
चूंकि इसे 1 अप्रैल 2017 से लागू होना है, इसलिए यह काम जल्द से जल्द निपटाना
होगा। चूंकि इस साल बजट भी अपेक्षाकृत जल्दी आ रहा है, इसलिए यह उत्सुकता बनी है
कि यह सब कैसे होगा।
Monday, October 31, 2016
सपा के तम्बू में वर्चस्व का संग्राम
कुछ दिन पहले तक समाजवादी पार्टी पर वंशवाद का आरोप था। अब
उसके भीतर प्रति-वंशवाद जन्म ले रहा है। ‘बारह दूने आठ’ का यह नया पहाड़ा वंशवाद का बाईप्रोडक्ट है। सवाल उत्तराधिकार का है।
समझना यह होगा कि सन 2012 में जब मुलायम सिंह ने अखिलेश को अपना उत्तराधिकारी
बनाया था तब वजह क्या थी और आज उन्हें अपने किए पर पछतावा क्यों है?
Sunday, October 23, 2016
रीता नहीं, राहुल की फिक्र कीजिए
रीता बहुगुणा जोशी के कांग्रेस से पलायन का निहितार्थ
क्या है? एक विशेषज्ञ का कहना है कि इससे न तो भाजपा को फायदा होगा और न कांग्रेस को
कोई नुकसान होगा। केवल बहुगुणा परिवार को नुकसान होगा। उनकी मान्यता है कि विजय
बहुगुणा और रीता बहुगुणा का राजनीतिक प्रभाव बहुत ज्यादा नहीं है। यह प्रभाव है या
नहीं इसका पता उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश के चुनावों में लगेगा। मेरी समझ से
फिलहाल इस परिघटना को राहुल गांधी के कमजोर होते नेतृत्व के संदर्भ में देखना
चाहिए। पार्टी छोड़ने के बाद रीता बहुगुणा ने कहा, ‘कांग्रेस को विचार करना
चाहिए कि उसके बड़े-बड़े नेता नाराज़ क्यों हैं? क्या कमी है पार्टी में? क्या कांग्रेस की
कार्यशैली में बदलाव आ गया है?’ यह बात केवल एक नेता की
नहीं है। समय बताएगा कि कितने और नेता इस बात को कहने वाले हैं।
Sunday, October 16, 2016
पर्सनल लॉ : बहस है, युद्ध नहीं
‘तीन बार बोलकर तलाक’ देने और समान नागरिक संहिता के मामले में बहस के दो पहलू
हैं। एक पहलू भाजपाई है। भाजपा की राजनीति ‘मुस्लिम तुष्टीकरण’ की अवधारणा पर टिकी है। सन 1985 के शाहबानो मामले में
केन्द्र सरकार के रुख से ज़ाहिर हुआ कि सरकार कठोर फैसले नहीं करेगी। सन 1984 से
1989 के लोकसभा चुनाव के बीच बीजेपी की संसद में उपस्थिति बढ़ाने में मंदिर आंदोलन
की भूमिका जरूर थी, पर उस मनोदशा को बढ़ाने में जिन दूसरी परिघटनाओं का हाथ था,
उनमें एक मामला शाहबानो का भी था।
भारत में साम्प्रदायिक विभाजन
आजादी के करीब सौ साल पहले होने लगा था। पर चुनाव की राजनीति स्वतंत्रता के बाद की
देन है। राजनीतिक दलों के लिए ‘वोट’ सबसे बड़ी पूँजी है। वे
वोट के दीवाने हैं और उसके लिए संकीर्ण विचार को भी प्रगतिशील लिफाफे में रखकर पेश
करते हैं। सामाजिक बदलाव के लिए उनकी जिम्मेदारी नहीं है। बदलाव आसानी से होते भी नहीं।
उनकी प्रतिक्रिया होती है। उदाहरण दिए जाते हैं कि हमारे साथ ऐसा और उसके साथ वैसा
क्यों? हमारी राज-व्यवस्था धर्म निरपेक्ष है, पर यह धर्म-निरपेक्षता धार्मिक
संवेदनाओं का सम्मान करती है। इसी वजह से इसके अंतर्विरोध पैदा होते हैं। मंदिर
आंदोलन ने एक दूसरे किस्म की संवेदनशीलता को बढ़ावा दिया। विश्व हिन्दू परिषद और
शिवसेना जैसे संगठनों ने इसे हवा दी और नफरत की राजनीति को बढ़ावा दिया। अराजकता किसी एक तरफ से नहीं है।
Sunday, October 9, 2016
‘सर्जिकल स्ट्राइक’ पर सियासत
सेना ने जब ‘सर्जिकल स्ट्राइक’
की घोषणा की थी तो एकबारगी देश के सभी राजनीतिक दलों ने उसका स्वागत किया था। इस
स्वागत के पीछे मजबूरी थी और अनिच्छा भी। मजबूरी यह कि जनमत उसके साथ था। पर परोक्ष रूप से यह मोदी सरकार का समर्थन था, इसलिए अनिच्छा भी थी। भारतीय जनता पार्टी ने संयम बरता होता और इस कार्रवाई को भुनाने की कोशिश नहीं की होती तो शायद विपक्षी प्रहार इतने तीखे नहीं होते। बहरहाल अगले दो-तीन दिन में जाहिर
हो गया कि विपक्ष बीजेपी को उतनी स्पेस नहीं देगा, जितनी वह लेना चाहती है। पहले अरविन्द केजरीवाल ने पहेलीनुमा सवाल फेंका। फिर कांग्रेस के संजय निरूपम
ने सीधे-सीधे कहा, सब फर्जी है। असली है तो प्रमाण दो। पी चिदम्बरम, मनीष तिवारी
और रणदीप सुरजेवाला बोले कि स्ट्राइक तो कांग्रेस-शासन में हुए थे। हमने कभी श्रेय
नहीं लिया। कांग्रेस सरकार
ने इस तरह कभी हल्ला नहीं मचाया। पर धमाका राहुल गांधी ने किया। उन्होंने नरेन्द्र मोदी पर ‘खून की दलाली’
का आरोप जड़ दिया।
इस राजनीतिकरण की जिम्मेदारी बीजेपी पर भी है।
सर्जिकल स्ट्राइक की घोषणा होते ही उत्तर प्रदेश के कुछ शहरों में पोस्टर लगे।
हालांकि पार्टी का कहना है कि यह सेना को दिया गया समर्थन था, जो देश के किसी भी
नागरिक का हक है। पर सच यह है कि पार्टी विधानसभा चुनाव में इसका लाभ उठाना चाहेगी।
कांग्रेस और दूसरे विपक्षी दलों के लिए यह स्थिति असहनीय है। वे बीजेपी के लिए
स्पेस नहीं छोड़ना चाहते। हालांकि अभी यह बहस छोटे दायरे में है, पर बेहतर होगा कि हमारी संसद इन सवालों पर गम्भीरता से विचार करे। बेशक देश की सेना या सरकार कोई भी जनता के सवालों के दायरे से बाहर नहीं है, पर सवाल किस प्रकार के हैं और उनकी भाषा कैसी है यह भी चर्चा का विषय होना चाहिए। साथ ही यह भी देखना होगा कि सामरिक दृष्टि से किन बातों को सार्वजनिक रूप से उजागर किया जा सकता है और किन्हें नहीं किया जा सकता।
Sunday, October 2, 2016
‘सर्जिकल स्ट्राइक’ ने क्या दिया?
विसंगति है कि हम गांधी जयंती के दिन ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ की बात कर रहे हैं। पर यह सवाल आज ही पूछा जा सकता
है कि क्या शांति-स्थापना का रास्ता युद्ध से होकर नहीं जाता है? खासतौर से तब जब कोई हथियार लेकर
सिर पर खड़ा हो? गुरुवार 28-29 सितम्बर की रात भारतीय सेना ने नियंत्रण रेखा पार करके आतंकवादियों
के सात लांच पैड पर हमले किए थे। यह प्रिवेंटिव कार्रवाई थी। हमले को रोकने की
पेशबंदी।
Sunday, September 25, 2016
स्टूडियो उन्माद से हासिल कुछ नहीं होगा
पाकिस्तानी कार्टून |
मीडिया का सबसे पसंदीदा विषय भारत-पाक तनाव है। जम्मू-कश्मीर के उड़ी इलाके में
फौजी कैम्प पर हुए आतंकवादी हमले की खबर आई नहीं कि दिनभर चैनलों पर तय होने लगा
कि भारत को करना क्या चाहिए। डिप्लोमैटिक दबाव डालें या फौजी हमला करें?
सिंधु संधि को रद्द कर दें? नदियों का रुख बदल दें? एक पूर्व जनरल ने सलाह
दी कि अपने फिदायीन दस्ते बनाएं। कुछ मीडिया नरेशों का सुझाव था कि जैसे म्यांमार
में नगा विद्रोहियों पर धावा बोला गया था वैसे ही लश्करे तैयबा के कैम्पों पर हमला
करना चाहिए।
Sunday, September 18, 2016
सवाल तो अब खड़े होंगे
देश के सबसे बड़े समाजवादी परिवार की कलह फिलहाल दबा
दी गई है, पर अपने पीछे कुछ सवाल छोड़ गई है। अखिलेश और शिवपाल यादव ने इस विवाद
को सार्वजनिक रूप से और ज्यादा न बढ़ाने का फैसला करके कलह पर पर्दा डाल दिया है,
पर किसी न किसी सतह पर विवाद कायम रहेगा। मुलायम सिंह यादव ने अखिलेश की महत्वाकांक्षा की आलोचना की है। उन्होंने शिवपाल को मंत्री के रूप में प्रतिष्ठित करने के साथ-साथ पार्टी का अध्यक्ष पद भी सौंपा है। पर एक इंटरव्यू में यह भी कहा है कि रामगोपाल यादव पार्टी में नम्बर 2 हैं। बहरहाल सपा के भीतर जो सवाल उठ रहे हैं वे केवल
समाजवादी पार्टी ही नहीं उन सभी पार्टियों के भीतर उठेंगे, जो व्यक्ति केन्द्रित
हैं। देश के ज्यादातर दल इस रोग के शिकार हैं।
Subscribe to:
Posts (Atom)