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Friday, June 24, 2022

तलफ़्फ़ुज़ से जुड़े सवाल


प्रतिष्ठित पत्रकार प्रभात डबराल ने उर्दू (यानी अरबी या फारसी) शब्दों के तलफ़्फ़ुज़ यानी उच्चारण और हिन्दी में उनकी वर्तनी को लेकर फेसबुक पर एक पोस्ट लिखी है, जिसे पहले पढ़ें:

बहुत पुरानी बात है.. सन अस्सी के इर्द-गिर्द की. दिल्ली के बड़े अख़बार में रिपोर्टर था लेकिन तब के एकमात्र टीवी चैनल दूरदर्शन में  हर हफ़्ते एकाध प्रोग्राम कर लेता था. एक विदेशी टीवी न्यूज़ चैनल के दिल्ली ब्यूरो में तीन साल काम कर चुका था इसलिए टीवी की बारीकियों की थोड़ा बहुत समझ रखता था लेकिन हिंदी में उर्दू से आए शब्दों के उच्चारण में हाथ बहुत तंग था.

कोटद्वार से स्कूलिंग और मसूरी से डिग्री करके आया था इसलिए नुक़्ता क्या होता है अपन को पता ही नहीं था. सच कहूँ तो अभी भी नुक़्ता कहाँ लगाना है कहाँ नहीं ये सोच कर पसीना आ जाता है. ख़ासकर ज पर लगने वाला नुक़्ता. हालत ये कि किसी ने  सिखाया कि भाई ये बजार नहीं बाज़ार होता है तो हम बिजली को भी बिज़ली कहने लगे..जरा को ज़रा और ज़र्रा को जर्रा कहने वाले  अभी भी बहुत मिल जाते हैं…

नुक़्ते के इस आतंक के बीच आज आकाशवाणी में काम करने वाले एक (सोशल मीडिया में मिले)मित्र प्रतुल जोशी की इस पोस्ट पर नज़र पड़ी तो लगा शेयर करनी चाहिए…:

ज़बान के रंग, नाचीज़ लखनवी के संग

आप अगर सही तरह से अल्फ़ाज़ को पेश नहीं करते तो यह प्रदर्शित करता है कि आप का भाषा के प्रति ज्ञान अधूरा है। आज मैं हिंदुस्तानी ज़बान के कुछ रोचक तथ्यों की तरफ़ अपने मित्रों का ध्यान आकर्षित करना चाहूंगा।

1. सही शब्द है यानी, प्रायः लिखा जाता है यानि

2. शब्द है रिवाज। प्रायः लिखा/ बोला जाता है रिवाज़। इस को याद रखने का आसान तरीक़ा है कि शब्द "रियाज़" याद रखा जाए। जहां रिवाज में नुक़्ता नहीं लगता, रियाज़ में लगता है।

.3. उर्दू में दो शब्द नुक़्ता लगाने से बिल्कुल दो भिन्न अर्थों को संप्रेषित करते हैं। यह हैं एजाज़ और एज़ाज़। जहां ऐजाज़ का अर्थ चमत्कार होता है, वहीं ऐज़ाज़ का अर्थ है "सम्मान"।

Thursday, February 4, 2021

राजेंद्र माथुर का लेख: एक सफेदपोश स्वर्ग

 


आज अचानक मेरे मन में राजेन्द्र माथुर के एक पुराने आलेख को फिर से छापने की इच्छा पैदा हुई है। यह इच्छा निर्मला सीतारमन के बजट पर मिली प्रतिक्रियाओं के बरक्स है। यह लेख  नई दुनिया के समय का यानी सत्तर के दशक का है। इसमें आज के संदर्भों को खोजने की जरूरत नहीं है। इसमें समाजवाद से जुड़ी परिकल्पना और भारतीय मनोदशा का आनंद लेने की जरूरत है। आज वामपंथ एक नए रूप में सामने आ रहा है। राजेंद्र माथुर को पसंद करने वाले काफी हैं, पर काफी  लोग उन्हें नापसंद भी करते हैं। आज वे जीवित होते तो पता नहीं राष्ट्रवाद की उनकी दृष्टि क्या होती, पर उस दौर में भी उन्हें संघी मानने वाले लोग थे। वे नेहरू के प्रशंसक थे, भक्त नहीं। बहरहाल इस आलेख को पढ़िए। कुछ समय बाद मैं कुछ और रोचक चीजें आपके सामने रखूँगा। 

 प्रजातंत्रीय भारत में समाजवाद क्यों नहीं आ रहा है, इसका उत्तर तो स्पष्ट है। समाजवाद के रास्ते में सबसे बड़ा अड़ंगा स्वयं भारत की जनता है, वह जनता जिसके हाथ में वोट है। यदि जनता दूसरी होती, तो निश्चय ही समाजवाद तुरंत आ जाता। हमने जिस ख्याल को समाजवाद का नाम देकर दिमाग में ठूंस रखा है, उसे मार्क्स, लेनिन, माओ किसी का भी समाजवाद नहीं कह सकते। इस शब्द का अर्थ ही हमारे लिए अलग है।

 समाजवाद का अर्थ इस देश के शब्दकोश में मजदूर किसानों का राज नहीं है, पार्टी की तानाशाही नहीं है, पुरानी व्यवस्था का विनाश नहीं है, नए मूल्यों का निर्माण नहीं है। हमारे लिए समाजवाद का अर्थ एक सफेदपोश स्वर्ग है, जिसमें इस देश का हर नागरिक 21 साल पूरा करते ही पहुंच जाएगा। यह ऐसा स्वर्ग है, जिसमें किसानी और मजदूरी की जरूरत ही नहीं होगी। ऐसा कोई वर्ग ही नहीं होगा, जिसे बदन से मेहनत करनी पड़े। रूस ने अपने संविधान में काम को बुनियादी अधिकार माना है, लेकिन भारत के सफेदपोश स्वर्ग में काम की कुप्रथा का हमेशा के लिए अंत कर दिया जाएगा।

 बेशक जो मेहनत-मजदूरी करने वाले लोग हैं, वे कोई सफेदपोश स्वर्ग नहीं, बल्कि अपनी नारकीय गरीबी से जार-सी राहत चाहते हैं। वे करोड़ों हैं, शायद 80 प्रतिशत हैं, लेकिन वे बेजुबान, असंगठित और राजनीतिविहीन हैं। शायद वे इस तरह वोट देते हैं, जैसे रोटरी क्लब के अध्यक्ष पद के लिए पूरे इन्दौर की जनता वोट देने लगे। राजनीति का क्लब थोड़े से लोगों का है, लेकिन वोट देने का अधिकार सभी को है। शायद भारत के सबसे गरीब लोग अभी इतने असंतुष्ट भी नहीं हुए हैं कि वर्तमान व्यवस्था को हर कीमत पर तहस-नहस कर डालें।

इंदिरा गांधी और जगजीवन राम गरीबी हटाने की चाहे जितनी बात करें, लेकिन जो गरीबी राजनैतिक रूप से दुखद नहीं है, वह कभी नहीं हटेगी। जिस बच्चे ने चिल्लाना नहीं सीखा है, वह बिना दूध के भूखा ही मरेगा। वह यों भी हमेशा भूखों मरता आया है और तृप्ति को उसने कभी अपना अधिकार नहीं माना है। यह सर्वहारा वर्ग अभी राजनीति से विलग है, इसलिए रूस या चीन जैसा समाजवाद इस देश में नहीं आ सकता।

Friday, January 29, 2021

मुंशी सदासुखलाल और उनका योगदान

 

जॉन गिलक्राइस्ट, हिन्दी-उर्दू के भेद के सूत्रधार 
जब सन 1800 में फोर्ट विलियम कालेज (कलकत्ता) के अध्यापक जॉन गिलक्राइस्ट ने देशी भाषा की गद्य पुस्तकें तैयार कराने की व्यवस्था की, तब उन्होंने उर्दू और हिन्दी दोनों के लिए अलग-अलग प्रबंध किया। फोर्ट विलियम कॉलेज से जुड़े हिन्दी लेखकों से संभवतः कहा गया था कि वे ऐसी भाषा लिखें, जिसमें फारसी के शब्द नहीं हों। मुंशी सदासुखलाल 'नियाज' (1746-1824) का नाम उन चार प्रारंभिक गद्य लेखकों में शामिल है, जिन्हें नई शिक्षा से जुड़ी किताबें लिखने का काम मिला। पर उन्होंने गिलक्राइस्ट के निर्देश पर नहीं स्वतः प्रेरणा से लिखा था। बुनियादी तौर पर वे फारसी और उर्दू में लिखते थे। उन्होंने खड़ी बोली के उस रूप में लिखना शुरू किया, जिसे उन्होंने खुद भाखा बताया। संस्कृत के तत्सम शब्दों का प्रयोग करके उन्होंने इस भाखा के जिस रूप को पेश किया, उसमें खड़ी बोली के भावी साहित्यिक रूप का आभास मिलता है। उन्होंने आगरा से बुद्धि प्रकाश नामक पत्र निकाल, जिसमें उनकी भाषा के नमूने खोजे जा सकते हैं। मुंशी सदासुखलाल के संपादन में यह पत्र पत्रकारिता की दृष्टि से ही नहीं, अपितु भाषा व शैली की दृष्टि से भी ख़ास स्थान रखता है। रामचंद्र शुक्ल ने इस पत्र की भाषा की प्रशंसा करते हुए लिखा है कि "बुद्धि प्रकाश की भाषा उस समय की भाषा को देखते हुए बहुत अच्छी होती थी।"

दिल्ली निवासी मुंशी सदासुखलाल 1793 के आसपास कंपनी सरकार की नौकरी में चुनार के तहसीलदार थे। बाद में नौकरी छोड़कर प्रयाग निवासी हो गए और अपना समय कथा वार्ता एवं हरिचर्चा में व्यतीत करने लगे। उन्होंने श्रीमद्भागवद् का अनुवाद 'सुखसागर' नाम से किया। अलबत्ता इस ग्रंथ की कोई प्रति उपलब्ध नहीं हैं। शायद वह पुस्तक अधूरी रही। उन्होंने 'मुतख़बुत्तवारीख' में अपना जीवन-वृत्त लिखा है।

Thursday, January 28, 2021

लल्लू लाल का गद्य और प्रेमसागर

 

आगरा निवासी लल्लू लाल की नियुक्ति 1800 में फोर्ट विलियम कॉलेज में ’भाखा मुंशी’ के पद पर हिंदी-ग्रंथ रचना के लिए हुई थी। ’काजम अली जवां’ और ’मजहर अली विला’ इनके दो सहायक थे। इनकी महत्त्वपूर्ण रचनाएँ आमतौर पर संस्कृत या ब्रजभाषा से खड़ी बोली में अनुवाद हैं। 1. सिंहासन बत्तीसी, 2. बैताल पचीसी (इसकी भाषा को रेख्ता कहा गया), 3. शकुंतला नाटक, 4. प्रेमसागर या नागरी दशम, 5. राजनीति (ब्रजभाषा में,1809), 6. सभा विलास, 7. माधव विलास, 8. लाल चंद्रिका नाम से बिहारी-सतसई की टीका।

लल्लू लाल के बारे में कुछ और बातें

इन्होंने संस्कृत प्रेस की स्थापना (कलकत्ता, फिर आगरा में) की थी।

वे उर्दू को ’यामिनी भाषा’ कहते थे। प्रेमसागर की रचना करते वक्त इन्होंने यामिनी भाषा छोड़ने की ओर संकेत किया था।

लल्लूलाल ने ’बजुवान-इ-रेख्ता’ शब्द का प्रयोग ’लताइफ-ए-हिंदी’ के लिए किया था।

इनकी राजनीति (1802) शीर्षक कृति हितोपदेश की कहानियों से संबंधित ब्रजभाषा गद्य में अनूदित रचना है।’लताइफ-ए-हिंदी’ खङीबोली, ब्रज और हिंदुस्तानी की 100 लघु कथाओं का संग्रह है।

लल्लू लाल रचित प्रेमसागर का  नीचे दिया गया अंश केवल उस गद्य से परिचित कराने के लिए है, जो उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्ध में शक्ल ले रहा था। फोर्ट विलियम कॉलेज दौर के चार लेखकों से पहले भी खड़ी बोली के गद्य का विवरण मिलता है। इस बार मैंने काफी छोटा अंश लिया है। उसे पढ़ने के पहले इन चारों लेखकों के गद्य की झलक देखने से भाषा का स्वरूप समझ में आएगा। मेरी दिलचस्पी हिन्दी-उर्दू के विकास में ज्यादा है। दोनों में किस प्रकार की एकता है और क्या फर्क है। इसमें उत्तर भारत के सांप्रदायिक अलगाव की पृष्ठभूमि भी मिलेगी।  

Friday, July 7, 2017

भारतीय भाषाओं को लड़ाने की कोशिश

बंगाल में जड़ें जमाने की कोशिश में भारतीय जनता पार्टी साम्प्रदायिक सवालों को उठा रही है. उसके लिए परिस्थितियाँ अच्छी हैं, क्योंकि ममता बनर्जी ने इस किस्म की राजनीति के दूसरे छोर पर कब्जा कर रखा है. भावनाओं की खेती के अर्थशास्त्र को समझना है तो वोट की राजनीति पढ़ना चाहिए. ऐसी ही खेती का जरिया भाषाएं हैं. कर्नाटक में अगले साल चुनाव होने वाले हैं. उसके पहले वहाँ भाषा को लेकर एक अभियान शुरू हुआ है. राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस तीन भाषा सूत्र की समर्थक है, पर बेंगलुरु मेट्रो में हिंदी विरोध की वह समर्थक है. साम्प्रदायिक राजनीति का यह एक और रूप है, इसमें सम्प्रदाय की जगह भाषा ले लेती है. भाषा सामूहिक पहचान से जुड़ी है. इस आंदोलन के पीछे अंग्रेजी-परस्त लोग भी शामिल हैं, क्योंकि अंग्रेजी उन्हें 'साहब' की पहचान देने में मददगार है.
इन दिनों बेंगलुरु मेट्रो के सूचना-पटों में अंग्रेजी और कन्नड़ के साथ हिंदी के प्रयोग को लेकर एक आंदोलन चलाया जा रहा है. इस आंदोलन को अंग्रेजी मीडिया ने हवा भी दी है. शहर के कुछ मेट्रो स्टेशनों में हिंदी में लिखे नाम ढक दिए गए हैं. ऐसा ही एक आंदोलन कुछ समय पहले दक्षिण भारत में राष्ट्रीय राजमार्गों के नाम-पटों में हिंदी को शामिल करने के विरोध में खड़ा हुआ था. हाल में राम गुहा और शशि थरूर जैसे लोगों ने बेंगलुरु मेट्रो-प्रसंग में हिंदी थोपे जाने का विरोध किया है. एक तरह से यह भारतीय भाषाओं को आपस में लड़ाने की कोशिश है. साथ ही अंग्रेजी के ध्वस्त होते किले को बचाने का प्रयास भी.

Sunday, September 14, 2014

भाषा, पत्रकारिता और हिन्दी समाज के रिश्ते बिखर रहे हैं

हिंदी पत्रकारिता का हिंदी से क्या रिश्ता है?

प्रमोद जोशी
पूर्व संपादक, हिन्दुस्तान
हिंदी के नाम पर हम दो दिन खासतौर से मनाते हैं। पहला हिंदी पत्रकारिता दिवस, जो 30 मई 1826 को प्रकाशितहिंदी के पहले साप्ताहिक अख़बार ‘उदंत मार्तंड’ की याद में मनाया जाता है और दूसरा हिंदी दिवस जो संविधान में हिंदी कोसंघ की राजभाषा बनाए जाने से जुड़े प्रस्ताव की तारीख 14 सितम्बर 1949 की याद में मनाया जाता है। हिंदी और पत्रकारिता का खास रिश्ता बनता है। उन्हें अलग-अलग करके नहीं देखा जा सकता। संयोग से पत्रकारिता और हिंदी दोनों इन दिनों बड़े बदलावों से गुज़र रहे हैं। और दोनों की गिरावट को लेकर एक बड़े तबके को शिकायत है। हाल के वर्षों में रोमन हिंदी का चलन बढ़ा है। उसके लोकप्रिय होने की वजह को भी हमें समझना होगा।
समय के साथ संसार बदलता है। भाषाएं और उनकी पत्रकारिता भी। हिंदी को भी बदलना है। पर क्या उसमें आ रहे बदलाव स्वाभाविक हैं? बदलाव से आशय है, उसमें प्रवेश कर रहे अंग्रेज़ी के शब्द। मसलन प्रधानमंत्री को प्राइम मिनिस्टर, छात्र को स्टूडेंट और गाड़ी को वेईकल लिखने से क्या भाषा ज्यादा सरल और सहज बनती है? दुनियाभर में अख़बार अपनी भाषा को आसान और आम-फहम बनाने की कोशिश करते हैं, क्योंकि उनका पाठक-वर्ग काफी बड़ा होता है। हिंदी के जिस रूप को हम देख रहे हैं वह डेढ़ सौ से दो सौ साल पुराना है। उदंत मार्तंड की हिंदी और आज की हिंदी में काफी बदलाव आ चुका है। हिंदी के इस स्वरूप की बुनियाद फोर्ट विलियम कॉलेज की पाठ्य-पुस्तकों से पड़ी।

Tuesday, June 24, 2014

भाषाओं को लेकर टकराव का ज़माना गया

मनमोहन सिंह अंग्रेजी में बोलते थे और नरेंद्र मोदी हिदी में बोलते हैं। मनमोहन सिंह की विद्वत्ता को लेकर संदेह नहीं, पर जनता को अपनी भाषा में बात समझ में आती है। गृह मंत्रालय के एक अनौपचारिक निर्देश को लेकर जो बात का बतंगड़ बनाया जा रहा है उसके पीछे वह साहबी मनोदशा है, जो अंग्रेजी के सिंहासन को डोलता हुआ नहीं देख सकती। हाल में बीबीसी हिंदी की वैबसाइट पर एक आलेख में कहा गया था, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शपथ ग्रहण समारोह के समय की एक तस्वीर में प्रधानमंत्री के साथ राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी, अफ़ग़ानिस्तान के राष्ट्रपति हामिद करज़ई, पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ और भूटान के राजा जिग्मे खेसर नामग्याल वांगचुक एक साथ एक गोल मेज़ के इर्द-गिर्द बैठे हैं।

आलेख में लेखक ने पूछा है, वे आपस में किस भाषा में बात कर रहे थे? अंग्रेज़ी में नहीं बल्कि हिंदी में। अगर मोदी की जगह मनमोहन सिंह होते तो ये लोग किस भाषा में बातें कर रहे होते? किसी और भाषा में नहीं, बल्कि अंग्रेज़ी में। मोदी अब तक प्रधानमंत्री की हैसियत से विदेशी नेताओं से जितनी बार मिले हैं उन्होंने हिंदी भाषा का इस्तेमाल किया है।

Friday, September 14, 2012

आधी-अधूरी हैं हिन्दी की सरकारी वैबसाइट


मीडिया स्टडीज ग्रुप का सरकारी हिंदी वेबसाइट का सर्वेक्षण

14 सितम्बर हिन्दी को राजभाषा बनाने का दिन है। हिन्दी इस देश की राजभाषा है। कुछ साइनबोर्डों को देखने से ऐसा अहसास होता है कि इस देश की एक भाषा यह भी है। राजभाषा के रूप में हिन्दी कैसी है इसे समझने के लिए सरकारी वैबसाइटों को देखना रोचक होगा। मीडिया स्टडीज़ ग्रुप ने इसका सर्वक्षण किया है, जिसके निष्कर्ष हिन्दी की कहानी बयाँ करते हैं।

सरकार की वेबसाइटों पर हिंदी की घोर उपेक्षा दिखाई देती है। हिंदी को लेकर भारत सरकार के विभिन्न मंत्रालय, विभाग व संस्थान के साथ संसद की वेबसाइटों के एक सर्वेक्षण से यह आभास मिलता है कि सरकार को हिंदी की कतई परवाह नहीं हैं। सर्वेक्षण में शामिल वेबसाइटों के आधार पर यह दावा किया जा सकता है कि हिंदी भाषियों के एक भी मुकम्मल सरकारी वेबसाइट नहीं हैं। अंग्रेजी के मुकाबले तो हिंदी की वेबसाइट कहीं नहीं टिकती है। हिंदी के नाम पर जो वेबसाइट है भी, वे भाषागत अशुद्धियों से आमतौर पर भरी हैं। हिंदी के नाम पर अंग्रेजी का देवनागरीकरण मिलता हैं। हिंदी की वेबसाइट या तो खुलती नहीं है। बहुत मुश्किल से कोई वेबसाइट खुलती है तो ज्यादातर में अंग्रेजी में ही सामग्री मिलती है। रक्षा मंत्रालय की वेबसाइट का हिंदी रूपांतरण करने के लिए उसे गूगल ट्रासलेंशन से जोड़ दिया गया है।

Wednesday, February 23, 2011

बीबीसी हिन्दी रेडियो को बचाने की अपील


बीबीसी की हिन्दी सेवा को बचाने के प्रयास कई तरफ से हो रहे हैं। एक ताज़ा प्रयास है लंदन के अखबार गार्डियन में छपा पत्र जिसपर भारत के कुछ प्रतिष्ठित नागरिकों के हस्ताक्षर हैं। बीबीसी की हिन्दी सेवा को देश के गाँवों तक में सुना जाता है। तमाम महत्वपूर्ण अवसरों पर यह सेवा हमारी जनता की खबरों का स्रोत बनी। इसकी हमें हमेशा ज़रूरत रहेगी।

Friday, October 22, 2010

अपने आपको परिभाषित करेगा हमारा मीडिया

एक ज़माना था जब दिल्ली के अखबार राष्ट्रीय माने जाते थे और शेष अखबार क्षेत्रीय। इस भ्रामक नामकरण पर किसीको बड़ी आपत्ति नहीं थी। दिल्ली के अखबार उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश और हिमाचल-पंजाब-हरियाणा तक जाकर बिकते थे। इन इलाकों के वे पाठक जिनकी दिलचस्पी स्थानीय खबरों के साथ राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय खबरों में होती थी, इन्हें लेते थे। ऐसे ज्यादातर अखबार अंग्रेज़ी में थे। हिन्दी में नवभारत टाइम्स ने लखनऊ, पटना और जयपुर जाकर इस रेखा को पार तो किया, पर सम्पादकीय और व्यापारिक स्तर पर विचार स्पष्ट नहीं होने के कारण तीनों संस्करण बंद हो गए। लगभग इसके समानांतर हिन्दुस्तान ने पहले पटना और फिर लखनऊ में अपनी जगह बनाई।

नवभारत टाइम्स के संचालकों ने उसे चलाना नहीं चाहा तो इसके गहरे व्यावसायिक कारण ज़रूर होंगे, पर सम्पादकीय दृष्टि से उसका वैचारिक भ्रम भी जिम्मेदार था। पाठक ने शुरूआत में उसका स्वागत किया, पर उसकी अपेक्षा पूरी नहीं हो पाई। नवभारत टाइम्स की विफलता के विपरीत हिन्दुस्तान का पटना संस्करण सफल साबित हुआ। संयोग है कि एक दौर ऐसा था जब पटना से नवभारत टाइम्स और हिन्दुस्तान दोनों प्रकाशित होते थे। हिन्दुस्तान ने स्थानीयता का वरण किया। प्रदीप के उत्तराधिकारी के रूप में हिन्दुस्तान को बेहतर स्पेस मिला। पर प्रदीप का आधार बहुत व्यापक नहीं था। हिन्दुस्तान ने काफी कम समय में अपना लोकल नेटवर्क बनाया। प्रायः सभी प्रमुख शहरों में दफ्तर बनाए। वहाँ से खबरें संकलित कर मुजफ्फरपुर, भागलपुर और रांची जैसे प्रमुख शहरों के संस्करण छपकर आए तो पाठकों ने उनका स्वागत किया।

राजस्थान पत्रिका ने उदयपुर, बीकानेर और कोटा जैसे शहरों में प्रेस लगाकर संस्करण शुरू किए। उत्तर प्रदेश में आगरा के अमर उजाला ने पहले बरेली से संस्करण शुरू किया। कानपुर का जागरण वाराणसी में आज के गढ़ में प्रवेश कर गया और सफल हुआ। जवाब में आज ने कानपुर संस्करण निकाला। अमर उजाला मेरठ और कानपुर गया। मध्य प्रदेश में नई दुनिया के मुकाबले भास्कर और नवभारत ने नए संस्करण शुरू करने की पहल की। खालिस्तानी आंदोलन के दौरान पंजाब केसरी ने तमाम कुर्बानियाँ देकर पाठक का मन जीता। रांची में प्रभात खबर नए इलाके में ज़मीन से जुड़ी खबरें लेकर आया। उधर नागपुर और औरंगाबाद में लोकमत का उदय हुआ। ये अखबार ही आज एक से ज्यादा संस्करण निकाल रहे हैं। अभी कुछ नए अखबारों के आने की संभावना भी है।

आठवें, नवें और दसवें दशक तक संचार-टेक्नॉलजी अपेक्षाकृत पुरानी थी। सिर्फ डाक और तार के सहारे काम चलता था। ज्यादातर छपाई हॉट मेटल पर आधारित रोटरी मशीनों से होती थी। इस मामले में इंदौर के नई दुनिया ने पहल ली थी। पर उस वक्त तक ट्रांसमीशन टेलीप्रिंटर पर आधारित था। इंटरनेट भारत में आया ही नहीं था। नब्बे के दशक में मोडम एक चमत्कारिक माध्यम के रूप में उभरा। अस्सी के दशक में भारतीय ऑफसेट मशीनें सस्ते में मिलने लगीं। संचार की तकनीक में भी इसके समानांतर विकास हुआ। छोटे-छोटे शहरों के बीच माइक्रोवेव और सैटेलाइट के मार्फत लीज़ लाइनों का जाल बिछने लगा। सूचना-क्रांति की पीठिका तैयार होने लगी।

हिन्दी अखबारों के ज्यादातर संचालक छोटे उद्यमी थे। पूँजी और टेक्नॉलजी जुटाकर उन्होंने अपने इलाके के अखबार शुरू किए। ज्यादातर का उद्देश्य इलाके की खबरों को जमा करना था। राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित ज्यादातर बड़े प्रकाशन अंग्रेजी अखबार निकालते थे। हिन्दी अखबार उनके लिए दोयम दर्जे पर थे। इसके विपरीत हिन्दी इलाके की छोटी पूँजी से जुटाकर निकले अखबार के पास सूचना संकलन के लिए बड़ी पूँजी नहीं थी। पत्रकारीय कौशल और मर्यादा को लेकर चेतना नहीं थी। वह आज भी विकसित हो पाई है, ऐसा कहा नहीं जा सकता। पत्र स्वामी के इर्द-गिर्द सेठ जी वाली संस्कृति विकसित हुई। पत्रकार की भूमिका का बड़ा हिस्सा मालिक के हितों की रक्षा से जुड़ा था। ऐसे में जो पत्रकार था वही विक्रेता, विज्ञापन एजेंट और मैनेजर भी था। स्वाभाविक था कि संचालकों की पत्रकारीय मर्यादाओं में दिलचस्पी वहीं तक थी जहाँ तक वह उनके कारोबार की बुनियादी ज़रूरत होती।

खबर एक सूचना है, जिसका साँचा और मूल्य-मर्यादा ठीक से परिभाषित नहीं हैं। विचार की अवधारणा ही हमारे समाज में अधकचरी है। हिन्दी इलाके की सामाजिक-सांस्कृतिक और राजनैतिक संरचना भीषण अंतर्विरोधों से ग्रस्त है। पाठक भी नया है। उसे सूचना की ज़रूरत है। उस सूचना के फिल्टर कैसे होते हैं, उसे पता नहीं। अचानक दस-पन्द्रह वर्ष में मीडिया का जबर्दस्त विस्तार हुआ इसलिए ट्रेनिंग की व्यवस्था भी विकसित नहीं हो पाई। ऐतिहासिक परिस्थितियों में जो सम्भव था वह सामने है। जो इससे संतुष्ट हैं उनसे मुझे कुछ नहीं कहना, पर जो असंतुष्ट हैं उन्हें रास्ते बताने चाहिए।

हिन्दी अखबारों का कारोबारी मॉडल देसी व्यपारिक अनुभवों और आधुनिक कॉरपोरेट कल्चर की खिचड़ी है। दूसरे शब्दों में पश्चिम और भारतीय अवधारणाओं का संश्लेषण। हिन्दी अखबारों में कुछ समय पहले तक लोकल खबरों को छापने की होड़ थी। आज भी है, पर उसमें अपवार्ड मोबाइल कल्चर और जुड़ गया है। सोलह से बीस पेज के अखबार में आठ पेज या उससे भी ज्यादा लोकल खबरों के होते हैं। इसमें सिद्धांततः दोष नहीं, पर लोकल खबर क्रिएट करने के दबाव और जल्दबाज़ी में बहुत सी निरर्थक सामग्री प्रकाशित होती है। इसके विपरीत एक पनीली आधुनिकता ने और प्रवेश किया है। इसकी शुरुआत भाषा में अंग्रेजी शब्दों के जबरन प्रवेश से हुई है। पुरानी हिन्दी फिल्मों में जॉनी वॉकर हैट लगाए शहरी बाबू बनकर आता था तकरीबन उसी अंदाज़ में आधुनिकता गाँवों और कस्बों में आ रही है। यह जल्द गुज़र जाएगी। इसका अगला दौर अपेक्षाकृत गम्भीर होगा। इसमें महत्वपूर्ण भूमिका शिक्षा की होगी।

शिक्षा-प्राप्त व्यक्ति जब अपने ज्ञान का इस्तेमाल करेगा तो स्वाभाविक रूप से उसकी दिलचस्पी जीवन के व्यापक फलक को समझने में होगी। अभी ऐसा लगता है कि हमारा समाज ज्ञान के प्रति उदासीन है। यह भी अस्थायी है। वैचारिक-चेतना के लिए वैश्विक गतिविधियों से जुड़ाव ज़रूरी है। मीडिया इसकी सम्भावनाएं बढ़ा रहा है। आज की स्थितियाँ अराजक लगतीं हैं, पर इसके भीतर से ही स्थिरता निकल कर आएगी। अखबारों और खबरिया मीडिया की खासियत है कि इसे अपनी आलोचना से भी रूबरू होना पड़ता है। यह आलोचना व्यापक सामाजिक-विमर्श का हिस्सा है। इनके बीच से ही अब ऐसे मीडिया का विकास होगा जो सूचना को उसकी गम्भीरता से लेगा। उच्छृंखल और लम्पट मीडिया का उदय जितनी तेजी से होता है, पराभव भी उतना तेज़ होता है। इंतज़ार करें और देखें।

Wednesday, September 29, 2010

सलमान खान तो हमारे पास भी है


रविवार के इंडियन एक्सप्रेस का एंकर सलमान खान पर था। यह सलमान बॉलीवुड का सितारा नहीं है, पर अमेरिका में सितारा बन गया है। बंग्लादेशी पिता और भारतीय माता की संतान सलमान ने सिर्फ अपने बूते दुनिया का सबसे बड़ा ऑनलाइन स्कूल स्थापित कर लिया है। हाल में गूगल ने अपने 10100 कार्यक्रम के तहत सलमान को 20 लाख डॉलर की मदद देने की घोषणा की है। इस राशि पर ध्यान दें तो और सिर्फ सलमान के काम पर ध्यान दें तो उसमें दुनिया को बदल डालने का मंसूबा रखने वालों के लिए महत्वपूर्ण संदेश छिपे हैं।

सलमान खान की वैबसाइट खान एकैडमी पर जाएं तो आपको अनेक विषयों की सूची नज़र आएगी। इनमें से ज्यादातर विषय गणित, साइंस और अर्थशास्त्र से जुड़े हैं। सलमान ने अपने प्रयास से इन विषयों के वीडियो बनाकर यहाँ रखे हैं। छात्रों की मदद के लिए बनाए गए ये वीडियो बगैर किसी शुल्क के उपलब्ध हैं। सलमान ने खुद एमआईटी और हार्वर्ड बिजनेस स्कूल से डिग्रियाँ ली हैं। शिक्षा को लालफीताशाही की जकड़वंदी से बाहर करने की उसकी व्यक्तिगत कोशिश ने उसे गूगल का इनाम ही नहीं दिलाया, बिल गेट्स का ध्यान भी खींचा है। बिल गेट्स का कहना है कि मैने खुद और मेरे बच्चों ने इस एकैडमी में प्राप्त शिक्षा सामग्री मदद ली है। पिछले साल सलमान को माइक्रोसॉफ्ट टेक एवॉर्ड भी मिल चुका है।

सलमान की इस कहानी का हमारे जैसे देश में बड़ा अर्थ है। इसके पीछे दो बातें है। दूसरों को ज्ञान देना और निशुल्क देना। सलमान का अपना व्यवसाय पूँजी निवेश का था। उसने अपनी एक रिश्तेदार को कोई विषय समझाने के लिए एक वीडियो बनाया। उससे वह उत्साहित हुआ और फिर कई वीडियो बना दिए। और फिर अपनी वैबसाइट में इन वीडियो को रख दिय़ा। सलमान की वैबसाइट पर जाएं तो आपको विषय के साथ एक तरतीब से वीडियो-सूची मिलेगी। ये विडियो उसने माइक्रोसॉफ्ट पेंट, स्मूद ड्रॉ और कैमटेज़िया स्टूडियो जैसे मामूली सॉफ्टवेयरों की मदद से बनाए हैं। यू ट्यूब में उसके ट्यूटोरियल्स को हर रोज 35,000 से ज्यादा बार देखा जाता है।

गूगल ने उसे जो बीस लाख डॉलर देने की घोषणा की है उससे नए वीडियो बनाए जाएंगे और इनका अनुवाद दूसरी भाषाओं में किया जाएगा। सलमान ने सीएनएन को बताया कि स्पेनिश, मैंडरिन(चीनी), हिन्दी और पोर्चुगीज़ जैसी भाषाओं में इनका अनुवाद होगा। सलमान का लक्ष्य है उच्चस्तरीय शिक्षा हरेक को, हर जगह। शिक्षा किस तरह समाज को बदलती है इसका बेहतर उदाहरण यूरोप है। पन्द्रहवीं सदी के बाद यूरोप में ज्ञान-विज्ञान का विस्फोट हुआ। उसे एज ऑफ डिस्कवरी कहते हैं। इस दौरान श्रेष्ठ साहित्य लिखा गया, शब्दकोश, विश्वकोश, ज्ञानकोश और संदर्भ-ग्रंथ लिखे गए। उसके समानांतर विज्ञान और तकनीक का विकास हुआ।

दुनिया में जो इलाके विकास की दौड़ में पीछे रह गए हैं, उनके विकास के सूत्र केवल आर्थिक गतिविधियों में नहीं छिपे हैं। इसके लिए वैचारिक आधार चाहिए। और उसके लिए सूचना और ज्ञान। यह ज्ञान अपनी भाषा में होगा तभी उपयोगी है। हिन्दी के विस्तार को लेकर हमें खुश होने का पूरा अधिकार है। अपनी भाषा में दुनियाभर के ज्ञान का खजाना भी तो हमें चाहिए। हमारे भीतर भी ऐसे जुनूनी लोग होंगे, जो ऐसा करना चाहते हैं, पर बिल गेट्स और गूगल वाले हिन्दी नहीं पढ़ते हैं। हिन्दी पढ़ने वाले और हिन्दी का कारोबार करने वालों को इस बात की सुध नहीं है। यह साफ दिखाई पड़ रहा है कि हिन्दी के ज्ञान-व्यवसाय पर हिन्दी के लोग हैं ही नहीं। जो हैं उन्हें या तो अंग्रेजी 
आती है या धंधे की भाषा।

इंटरनेट के विकास के बाद उसमें हिन्दी का प्रवेश काफी देर से हुआ। हिन्दी के फॉण्ट की समस्या का आजतक समाधान नहीं हो पाया है। गूगल ने ट्रांसलिटरेशन की जो व्यवस्था की है वह पर्याप्त नहीं है। वहरहाल जो भी है, उसका इस्तेमाल करने वाले बहुत कम हैं। दुनिया में जिस गति से ब्लॉगिंग हो रही है, उसके मुकाबले हिन्दी में हम बहुत पीछे हैं। विकीपीडिया पर हिन्दी में लिखने वालों की तादाद कम है। अगस्त 2010 में विकीपीडिया में लिखने वाले सक्रिय लेखकों की संख्या 82794 थी। इनमें से 36779 अंग्रेजी में लिखते हैं। जापानी में लिखने वालों की संख्या 4053 है और चीनी में 1830। हिन्दी में 70 व्यक्ति लिखते हैं। इससे ज्यादा 82 तमिल में और 77 मलयालम में हैं। भारतीय भाषाओं के मुकाबले भाषा इंडोनेशिया में लिखने वाले 244, थाई लिखने वाले 256 और अरबी लिखने वाले 522 हैं।

करोड़ों लोग हिन्दी में बात करते हैं, फिल्में देखते हैं या न्यूज़ चैनल देखते हैं। इनमें से कितने लोग बौद्धिक कर्म में अपना समय लगाते हैं?  मौज-मस्ती जीवन का अनिवार्य अंग है। उसी तरह बौद्धिक कर्म भी ज़रूरी है। अपने भीतर जब तक हम विचार और ज्ञान-विज्ञान की लहर पैदा नहीं करेंगे, तब तक एक समझदार समाज बना पाने की उम्मीद न करें। बदले में हमें जो सामाजिक-राजनैतिक व्यवस्था मिल रही है उसे लेकर दुखी भी न हों। यह व्यवस्था हमने खुद को तोहफे के रूप में दी है।
प्रोजेक्ट गुटेनबर्ग में हिन्दी की किताबें खोजें। नहीं मिलेंगी। गूगल बुक्स में देखें। थोड़ी सी मिलेंगी। हिन्दी की कुछ वैबसाइटों में हिन्दी के कुछ साहित्यकारों की दस से पचास साल पुरानी किताबों का जिक्र मिलता है। कुछ पढ़ने को भी मिल जाती हैं। इनमें हनुमान चालीसा और सत्यनारायण कथा भी हैं। पुस्तकालयों का चलन कम हो गया है। स्टॉल्स पर जो किताबें नज़र आतीं हैं, उनमें आधी से ज्यादा अंग्रेजी में लिखे उपन्यासों, सेल्फ हेल्प या पर्सनैलिटी डेवलपमेंट की किताबों के अनुवाद हैं। सलमान खान के वीडियो देखें तो उनके संदर्भ अमेरिका के हैं। हमारे लिए तो भारतीय संदर्भ के वीडियो की ज़रूरत होगी।

समाज विज्ञान, राजनीति शास्त्र, इतिहास, मनोविज्ञान, मानव विज्ञान से लेकर प्राकृतिक विज्ञानों तक हिन्दी के संदर्भ में किताबें या संदर्भ सामग्री कहाँ है? नहीं है तो क्यों नहीं है? हिन्दी में शायद सबसे ज्यादा कविताएं लिखीं जाती हैं। हिन्दी के पाठक को विदेश व्यापार, अंतरराष्ट्रीय सम्बंध, वैज्ञानिक और तकनीकी विकास, यहाँ तक कि मानवीय रिश्तों पर कुछ पढ़ने की इच्छा क्यों नहीं होती है? हाल में मुझसे किसी ने हिन्दी में शोध परक लेख लिखने को कहा। उसका पारिश्रमिक शोध करने का अवसर नहीं देता। शोध की भी कोई लागत होती है। वह कीमत हबीब के यहाँ एक बार की हजामत और फेशियल से भी कम हो तो क्या कहें? सलमान खान तो हमारे पास भी है, पर वह मुन्नी बदनाम के साथ नाचता है।  

Tuesday, September 14, 2010

मस्ती और मनोरंजन की हिन्दी


1982 में दिल्ली में हुए एशिया खेलों के उद्घाटन समारोह में टीमों का मार्च पास्ट हिन्दी के अकारादिक्रम से हुआ था। इस बार कॉमनवैल्थ खेलों में भी शायद ऐसा हो। राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय समारोहों में विमर्श की भाषा भले ही अंग्रेजी होती हो, पृष्ठभूमि पर लगे पट में हिन्दी के अक्षर भी होते हैं। ऐसा इसलिए कि इस देश की राजभाषा देवनागरी में लिखी हिन्दी है। हमें खुश रखने के लिए इतना काफी है। 14 सितम्बर के एक हफ्ते बाद तक सरकारी और सार्वजनिक क्षेत्र के दफ्तरों में हिन्दी दिवस मनाया जाता है। सरकारी दफ्तरों में तमाम लोग हिन्दी के काम को व्यक्तिगत प्रयास से और बड़े उत्साह के साथ करते हैं। और अब दक्षिण भारत में भी हिन्दी का पहले जैसा विरोध नहीं है। दक्षिण के लोगों को समझ मे आ गया है कि बच्चों के बेहतर करिअर के लिए हिन्दी का ज्ञान भी ज़रूरी है। इसलिए नहीं कि हिन्दी में काम करना है। इसलिए कि हिन्दी इलाके में नौकरी करनी है तो उधर की भाषा का ज्ञान होना ही चाहिए। हिन्दी की जानकारी होने से एक फायदा यह होता है कि किसी तीसरी भाषा के इलाके में जाएं और वहाँ अंग्रेजी जानने वाला भी न मिले तो हिन्दी की मदद मिल जाती है।

खबरिया और मनोरंजन चैनलों की वजह से भी हिन्दी जानने वालों की तादाद बढ़ी है। हिन्दी सिनेमा की वजह से तो वह थी ही। हमें इसे स्वीकार करना चाहिए कि हिन्दी की आधी से ज्यादा ताकत गैर-हिन्दी भाषी जन के कारण है। गुजराती, मराठी, पंजाबी, बांग्ला और असमिया इलाकों में हिन्दी को समझने वाले काफी पहले से हैं। भारतीय राष्ट्रवाद को विकसित करने में हिन्दी की भूमिका को सबसे पहले बंगाल से समर्थन मिला था। सन 1875 में केशव चन्द्र सेन ने अपने पत्र सुलभ समाचार में हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार करने की बात उठाई। बंकिम चन्द्र चटर्जी भी हिन्दी को ही राष्ट्रभाषा मानते थे। महात्मा गांधी गुजराती थे। दो पीढ़ी पहले के हिन्दी के श्रेष्ठ पत्रकारों में अमृत लाल चक्रवर्ती, माधव राव सप्रे, बाबूराव विष्णु पराडकर, लक्ष्मण नारायण गर्दे, सिद्धनाथ माधव आगरकर और क्षितीन्द्र मोहन मित्र जैसे अहिन्दी भाषी थे।

हिन्दी को आज पूरे देश का स्नेह मिल रहा है और उसे पूरे देश को जोड़ पाने वाली भाषा बनने के लिए जिस खुलेपन की ज़रूरत है, वह भी उसे मिल रहा है। यानी भाषा में शब्दों, वाक्यों और मुहावरों के प्रयोगों को स्वीकार किया जा रहा है। पाकिस्तान को और जोड़ ले तो हिन्दी या उर्दू बोलने-समझने वालों की संख्या बहुत बड़ी है। यह इस भाषा की ताकत है। हिन्दी का यह विस्तार उसे एक धरातल पर ऊपर ले गया है, पर वह उतना ही है, जितना कहा गया है। यानी बोलने, सम्पर्क करने, बाजार से सामान या सेवा खरीदने, मनोरंजन करने की भाषा। विचार-दर्शन, ज्ञान-विज्ञान, कला-संस्कृति और साहित्यिक हिन्दी का बाजार छोटा है। 

बांग्ला, मराठी, तमिल, मलयालम या दूसरी अन्य भाषाओं का राष्ट्रवाद अपनी भाषा को बिसराने की सलाह नहीं देता। हिन्दी का अपना राष्ट्रवाद उतना गहरा नहीं है। ज्ञान-विज्ञान, कला-संस्कृति और सामान्य ज्ञान के विषयों की जानकारी के लिए अंग्रेजी का सहारा है। हिन्दी के अलावा दूसरी भारतीय भाषाओं का पाठक विचार-विमर्श के लिए अपनी भाषा को छोड़ना नहीं चाहता। आनन्द बाज़ार पत्रिका और मलयाला मनोरमा बंगाल और केरल के ज्यादातर घरों में जाते हैं। अंग्रेजी अखबारों के पाठक यों तो चार या पाँच महानगरों में केन्द्रित हैं, पर मराठी, तमिल, बांग्ला और कन्नड़ परिवार में अंग्रेजी अखबार के साथ अपनी भाषा का अखबार भी आता है। हिन्दी शहरी पाठक का हिन्दी अखबार के साथ वैसा जुड़ाव नहीं है। एक ज़माने तक हिन्दी घरों में धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, कादम्बिनी, पराग, नन्दन और सारिका जैसी  पत्रिकाएं जातीं थीं। उनके सहारे पाठक अपने लेखकों से जुड़ा था। ऊपर गिनाई सात पत्रिकाओं में से पाँच बन्द हो चुकी हैं। बांग्ला का देश बन्द नहीं हुआ, तमिल का आनन्द विकटन बन्द नहीं हुआ। हिन्दी क्षेत्र का शहरी पाठक अंग्रेजी अखबार लेता है रुतबे के लिए। बाकी वह कुछ नहीं पढ़ता। टीवी देखता है,  पेप्सी या कोक पीता है, पीत्ज़ा खाता है। वह अपवार्ड मोबाइल है। 

हिन्दी का इस्तेमाल हम जिन कामों के लिए करते हैं उसके लिए जिस हिन्दी की ज़रूरत है, वह बन ही रही है। उसमें आसान और आम शब्द आ रहे हैं। पर हिन्दी दिवस हम सरकारी हिन्दी के लिए मनाते हैं। वह हिन्दी राष्ट्रवाद का दिवस नहीं है। इसे समझना चाहिए हिन्दी राष्ट्रभाषा नहीं राजभाषा है। मनोरंजन के बाद हिन्दी राष्ट्र का एक और शगल है, राजनीति। लोकसभा में जब भी किसी अविश्वास प्रस्ताव पर बहस होती है सबसे अच्छे भाषण हिन्दी में होते हैं। बौद्धिकता के लिहाज से अच्छे नहीं, भावनाओं और आवेशों में। लफ्फाज़ी में। हिन्दी राष्ट्र में तर्क, विवेक और विचार की जगह आवेशों और मस्ती ने ले ली है। मुझे पिछले दिनों रेलवे की हिन्दी सलाहकार समिति की एक बैठक में भाग लेने का मौका मिला। उसमें कई वक्ताओं ने सलाह दी कि रेलवे को आसान हिन्दी का इस्तेमाल करना चाहिए। वास्तव में संज्ञान में कोई बात लाने के मुकाबले जानकारी में लाना आसान और बेहतर शब्द है। ऐसे तमाम शब्द हैं जो रेलवे के पब्लिक एड्रेस सिस्टम में इस्तेमाल होते हैं, जो सामान्य व्यक्ति के लिए दिक्कत तलब हो सकते हैं। उनकी जगह आसान शब्द होने चाहिए। उस बैठक में किसी ने रेलवे-बजट की भाषा का सवाल उठाया। उसे भी आसान भाषा में होना चाहिए। बजट को आसान भाषा में तैयार करना उतना आसान नहीं है, जितना आसान पब्लिक एनाउंसमेंट में आसान भाषा का इस्तेमाल करना है।


संविधान के अनुच्छेद 343 के अनुसार हिन्दी देश की राजभाषा है, पर संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार ही अनन्त काल तक अंग्रेजी देश की राजभाषा के रूप में काम करती रहेगी। हिन्दी के जबर्दस्त उभार और प्रसार के बावजूद इस बात को रेखांकित किया जाना चाहिए कि केवल उसे राजभाषा बनाने के लिए एक ओर तो समूचे देश की स्वीकृति की ज़रूरत है, दूसरे उसे इस काबिल बनना होगा कि उसके मार्फत राजकाज चल सके। सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में अंग्रेजी का ही इस्तेमाल होता है। ज्यादातर बौद्धिक कर्म की भाषा अंग्रेजी है। हिन्दी पुस्तकालय की भाषा नहीं है। उसे समृद्ध बनाने की ज़िम्मेदारी भारत सरकार की है। संविधान का अनुच्छेद 351 इस बात को कहता है, पर सरकार 14 से 21 सितम्बर तक हिन्दी सप्ताह मनाने के अलावा और क्या कर सकती है? तमाम फॉर्मों के हिन्दी अनुवाद हो चुके हैं। चिट्ठियाँ हिन्दी में लिखी जा रहीं हैं। दफ्तरों के दस्तावेजों में हिन्दी के काम की प्रगति देखी जा सकती है, पर वास्तविकता किसी से छिपी नहीं है। हमारा संविधान हिन्दी के विकास में ज़रूर मददगार होता बशर्ते हिन्दी का समाज अपनी भाषा की इज्जत के बारे में सोचता। 


समाचार फॉर मीडिया डॉट कॉम में प्रकाशित

Wednesday, September 1, 2010

बदलाव कहाँ से आता है?



सितम्बर 1982 में यूएसए टुडे की शुरुआत टीवी के मुकाबले अखबारों को आकर्षक बनाए रखने की एक कोशिश का हिस्सा थी। दुनिया का पहला पूरी तरह रंगीन अखबार शुरू में बाजीगरी लगता था, पर जल्द ही अमेरिका का वह नम्बर एक अखबार बन गया। आज भी वॉल स्ट्रीट जर्नल के बाद यह दूसरे नम्बर का अखबार है। खबर यह है कि यूएसए टुडे अब प्रिंट की तुलना में अपने डिजिटल संस्करण पर ज्यादा ध्यान देगा। इसके अलावा यह एक और मेकओवर की तैयारी कर रहा है। अखबार के वैब, मोबाइल, आई पैड और दूसरे प्लेटफॉर्म बदले जाएंगे। सर्कुलेशन, फाइनेंस और न्यूज़ के विभागों में बड़े बदलाव होंगे। पिछले हफ्ते अखबार के कर्मचारियों को दिखाए गए एक प्रेजेंटेशन में नए विभागों की योजना बताई गई। यह भी स्पष्ट है कि इस काम में 130 कर्मचारियों की छँटनी की जाएगी।

यूएसए टुडे के बारे में हम अपने संदर्भों में सोचें तो चिंता की बात नहीं है। भारत में डिजिटल अखबारों का दौर कुछ साल बाद की बात है। पर साफ है कि यह दौर भारत में भी आएगा। हमारे यहाँ जो कुछ होता है वह अमेरिका की नकल में होता है। अधकचरा होता है। अखवार की स्वामी गैनेट कम्पनी ने यह भी स्पष्ट किया है कि हम अपने रेवेन्यू को बढ़ाने के प्रयास में पत्रकारीय-प्रतिबद्धता से पीछे नहीं हटेंगे। इस बात को कहा जाय या न कहा जाय पर अमेरिका में आज भी अखबार के स्वामी अपने धंधे का गुणगान उतने खुले ढंग से नहीं करता जितने खुले अंदाज़ में हमारे यहाँ होता है।

बदलाव एक मनोदशा का नाम है। उसे समझने की ज़रूरत है। बदलाव हमें आगे भी ले जा सकता है और पीछे भी। एक मोहरा हटाकर उसकी जगह दूसरा मोहरा रखना भी बदलाव है, पर महत्वपूर्ण है मोहरे की भूमिका। पिछले कुछ साल से मुझे नए एस्पायरिंग पत्रकारों में बुद्धिजीवियों और बौद्धिक कर्म के प्रति वितृष्णा नज़र आती है। पढ़ने-लिखने और ज्ञान बढ़ाने के बजाय कारोबारी शब्दावली का इस्तेमाल करने वाले लोगों की संख्या बढ़ रही है। इसके विपरीत सारे कथित बुद्धिजीवी और पुराने लोग भी दूध के धुले नहीं होते। उनका बड़ा तबका हर नई बात के प्रति शंकालु रहा है। उन्हें हर बात में साजिश नज़र आती है। अखबारों का रंगीन होना भी साम्राज्यवादी साजिश लगता है। इस द्वंद का असर अखबारों और मीडिया के दूसरे माध्यमों की सामग्री पर पड़ा है। बहुत से लोग इसके लिए बाज़ार को कोसते हैं, पर मुझे लगता है कि आज भी बाज़ार संजीदा और सरल पत्रकारिता को पसंद करता है और बाज़ीगरी को नापसंद। बाज़ार कौन है? हमारा पाठक ही तो हमारा बाज़ार है। वह छपाई और नई तकनीक को पसंद करता है, जो स्वाभाविक है। पर तकनीक तो फॉर्म है कंटेंट नहीं। रंग महत्वपूर्ण है यह यूएसए टुडे ने साबित किया।

1982 में यूएसए टुडे जब सामने आया तब उसने कंटेंट को बदल थोड़े दिया। सिर्फ उसे बेहतर तरीके से सजाया। मौसम जैसे उपेक्षित विषय की जानकारी और आर्थिक इंडिकेटरों को नया अर्थ दिया। उसके पहले मौसम की जानकारी यों ही दे दी जाती थी। यूएसए टुडे ने उसे बेहतर ग्रैफिक के साथ पेज एक पर एक खास जगह लगाया। अखबार के अलग-अलग सेक्शनों को अलग-अलग रंग की पहचान दी। पेज के बाईं ओर सार संक्षेप यानी रीफर शुरू किए। परम्परागत अखबारों से हटकर लीड खबर पेज पर दाईं ओर लगाना शुरू किया। सबसे रोचक थे यूएस टुडे स्नैपशॉट्स। ये कॉस्मेटिक बदलाव तो थे, पर सामग्री का मर्म पहले से बेहतर और साफ हुआ। यूएसए टुडे ने बदलाव की वह लहर शुरू की जिसने सारी दुनिया को धो दिया। इस बदलाव में न्यूयॉर्क टाइम्स जैसे अखबार देर से शामिल हुए। यूएसए टुडे के 15 साल बाद 1997 में न्यूयॉर्क टाइम्स रंगीन हुआ। भारत में हिन्दू ने अप्रेल 2005 में रिडिजाइन किया। यों इंटरनेट पर जाने वाला भारत का पहला अखबार हिन्दू था, जिसने 1995 में अपनी साइट लांच की। यह उसकी तकनीकी समझ थी।

बदलाव बंद दिमाग से किया जाय तो वह निरर्थक होता है। यूएसए टुडे ने शुरुआत में जितने तीखे रंग लगाए वे अब नहीं हैं। डिजाइन में पुरानेपन की भी वापसी हो रही है। आठ कॉलम के ग्रिड पर कायम रहना, ब्लैक एंड ह्वाइट स्पेस का ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल करना ताकि रंग बेहतर उभरें, बाद का विचार है। किसी चीज़ का प्रवेश भविष्य के बदलाव के रास्ते नहीं रोकता। पर कुछ चीजें ऐसी हैं, जो सैकड़ों साल तक नहीं बदलतीं। जैसे अखबारों के सम्पादकीय पेज। सम्पादकीय पेज की निरर्थकता का शोर तमाम दिलजले मचाते रहते हैं, पर इस पेज को खत्म नहीं कर पाते। इन दिनों हिन्दी के कुछ अखबार इस पन्ने में चाट-मसाला भरने की कोशिश करते नज़र आ रहे हैं। हो सकता है वे कोई नई चीज़ निकाल दें, पर अतिशय बदलाव अस्थिर दिमाग की निशानी है। मैग्जीनों के मास्टहैड पूरे पेज में फ्लोट करते रहे हैं, पर अखबारों के मास्टहैड में फॉण्ट और रंग तो तमाम बदले, पर पोजीशन नहीं बदल पाई।   

डिजाइन और कॉस्मेटिक्स से थोड़ा फर्क पड़ता है। असल चीज़ है जर्नलिज्म। देश के सबसे लोकप्रिय अखबारों का उदाहरण सामने है। टाइम्स ऑफ इंडिया, हिन्दू, टेलीग्राफ, इंडियन एक्सप्रेस, जागरण, भास्कर, मलयाला मनोरमा और आनन्द बाज़ार पत्रिका किसी न किसी मामले में लीडर हैं। इनके डिजाइन और कद को देखें। इनमें भास्कर ने हाल के वर्षों में डिजाइन और कंटेंट में कई प्रयोग किए हैं। शेष अखबार समय के साथ मामूली बदलाव करते रहे हैं, पर डिजाइन को लेकर बहुत चिंतित नहीं रहे। भास्कर का डिजाइन भी परम्परा के करीब है। जागरण शक्ल-सूरत से सामान्य लगता है, पर उसकी ताकत है सामान्य खबरें। न्यूज़ ऑफ द डे जागरण में होती है।

जो अखबार खबर को सादगी से देने के बजाय उसकी बाज़ीगरी में जुटते हैं, वे बुरी तरह पिटते हैं। सादा और सरल खबर लिखना मुकाबले बाज़ीगरी के ज्यादा मुश्किल काम है। दिक्कत यह है कि डिजाइन को स्वीकृति देने वाले लोगों का विज़न उस क्षण तक सीमित होता है, जिस क्षण वे डिजाइन देखते हैं। मसालेदार पकवान के मुकाबले सादा भोजन हमेशा फीका लगता है, फिर भी दुनिया में सबसे ज्यादा सादा भोजन ही खाया जाता है। हाल में अमर उजाला ने डिजाइन में बदलाव किया है, जो स्पेस मैनेजमेंट के लिहाज से आँख को कुछ खटकता है, पर पहले से सुथरा और बेहतर है। डिजाइन को कंटेंट की फिलॉसफी से जोड़ने के लिए एक बैचारिक अवधारणा भी किसी के पास होनी चाहिए। झगड़ा मार्केटिंग या सम्पादकीय का नहीं है। दोनों का उद्देश्य बाज़ार में सफल होना है। महत्वपूर्ण यह है कि हम पाठक के दिमाग को कितना समझते हैं। इसके लिए हमें भी तो खुद पाठक बनकर सोचना चाहिए।