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Friday, January 25, 2013

कोई बताए हमारा आर्थिक मॉडल क्या हो


समकालीन सरोकार, जनवरी 2013  में प्रकाशित 

सन 2013 का पहला सवाल है कि क्या इस साल लोकसभा चुनाव होंगे? लोकसभा चुनाव नहीं भी हों, आठ विधान सभाओं के चुनाव होंगे। इनमें मध्य प्रदेश, राजस्थान, दिल्ली और कर्नाटक का अलग-अलग कारणों से राजनीतिक महत्व है। सवाल है क्या दिल्ली की गद्दी पर गैर-कांग्रेस, गैर-भाजपा सरकार आने की कोई सम्भावना बन रही है? संसद के शीतकालीन सत्र में सरकार ने एफडीआई के मोर्चे पर एक महत्वपूर्ण राजनीतिक सफलता हासिल की है। इसके अलावा बैंकिग विधेयक लोकसभा से पास भी करा लिया है। अभी इंश्योरेंस, पेंशन और भूमि अधिग्रहण कानूनों को पास कराना बाकी है। और जैसा कि नज़र आता है कांग्रेस और भाजपा आर्थिक उदारीकरण के एजेंडा को मिलकर पूरा कराने की कोशिश कर रहे हैं। यह बात विचित्र लगेगी कि एक दूसरे की प्रतिस्पर्धी ताकतें किस तरह एक-दूसरे का सहयोग कर रही है, पर बैंकिंग विधेयक में दोनों का सहयोग साफ दिखाई पड़ा। खुदरा बाज़ार में एफडीआई को लेकर सरकार पहले तो नियम 184 के तहत बहस कराने को तैयार नहीं थी, पर जैसे ही उसे यह समझ में आया कि सरकार गिराने की इच्छा किसी दल में नहीं है, वह न सिर्फ बहस को तैयार हुई, बल्कि उसपर मतदान कराया और जीत हासिल की। सीपीएम के नेता सीताराम येचुरी इसे मैन्युफैक्चरिंग मेजॉरिटी कहते हैं, पर संसदीय लोकतंत्र यही है। सन 1991 में आई पीवी नरसिंह राव की सरकार कई मानों में विलक्षण थी। हालांकि आज़ादी के बाद से हर दशक ने किसी न किसी किस्म के तूफानों को देखा है, पर नरसिंह राव की सरकार के सामने जो चुनौतियाँ थी वे आसान नहीं थीं। उनके कार्यकाल में बाबरी मस्जिद को गिराया गया, जिसके बाद देश भर में साम्प्रदायिक हिंसा का जबर्दस्त दौर चला। मुम्बई में आतंकी धमाकों का चक्र उन्ही दिनों शुरू हुआ। कश्मीर में सीमापार से आतंकवादी कार्रवाइयों का सबसे ताकतवर सिलसिला तभी शुरू हुआ। पर हम नरसिंह राव सरकार को उन आर्थिक उदारवादी नीतियों के कारण याद रखते हैं, जिनका प्रभाव आज तक है। भारत में वैश्वीकरण की गाड़ी तभी से चलनी शुरू हुई है। वर्तमान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह उस सरकार के वित्त मंत्री थे। जब पहली बार आर्थिक उदारीकरण की नीतियों को लागू किया गया था तब कई तरह की आशंकाएं थीं। मराकेश समझौते के बाद जब 1995 में भारत विश्व व्यापार संगठन का सदस्य बना तब भी इन आशंकाओं को दोहराया गया। पिछले इक्कीस साल में इन अंदेशों को बार-बार मुखर होने का मौका मिला, पर आर्थिक उदारीकरण का रास्ता बंद नहीं हुआ। दिल्ली में कांग्रेस के बाद संयुक्त मोर्चा और एनडीए की सरकारें बनीं। वे भी उसी रास्ते पर चलीं। बंगाल और केरल में वाम मोर्चे की सरकारें आईं और गईं। उन्होंने भी उदारीकरण की राह ही पकड़ी। मुख्यधारा की राजनीति में उदारीकरण की बड़ी रोचक तस्वीर बनी है। ज्यादातर बड़े नेता उदारीकरण का खुला समर्थन नहीं करते हैं, बल्कि विरोध करते हैं। पर सत्ता में आते ही उनकी नीतियाँ वैश्वीकरण के अनुरूप हो जाती हैं। एफडीआई पर संसद में हुई बहस की रिकॉर्डिंग फिर से सुनें तो आपको परिणाम को लेकर आश्चर्य होगा, पर राजनीति इसी का नाम है। उदारीकरण के दो दशकों का अनुभव यह है कि हम न तो उसके मुखर समर्थक हैं और न व्यावहारिक विरोधी। इस अधूरेपन का फायदा या नुकसान भी अधूरा है।