Saturday, September 4, 2010

काग्रेस में वंशवाद!!!

मुम्बई में कांग्रेस  का पहला सम्मेलन 28-31 दिसम्बर 1885
यह पार्टी का फैसला है कि सोनिया गांधी अध्यक्ष बनें। सोनिया गांधी समझदार, शांत और सुशील महिला हैं। सब कुछ ठीक है। पर यह सवाल ज़रूर उठता है कि देश का सबसे बड़ा राजनैतिक दल अपने आप को व्यवस्थित रखने के लिए नेहरू-गांधी परिवार का सहारा क्यों लेता है। ऐसा नहीं कि सोनिया गांधी ने कोई साज़िश की है। वास्तव में पार्टी ने उन्हें अध्यक्ष बनाया है। उनके मुकाबले वास्तव में कोई खड़ा होना नहीं चाहेगा। और इस प्रकार वे जब तक चाहेंगी तब तक अध्यक्ष बनी रह सकतीं हैं।

मेरे विचार से राहुल गांधी इस वक्त देश के सर्वश्रेष्ठ युवा नेता हैं। अपने आचार-व्यवहार में वे किसी भी पार्टी के नेता से बेहतर हैं। वे जब चाहेंगे प्रधानमंत्री बन सकते हैं। नहीं बनते तो यह उनकी उदारता और समझदारी दोनों है। वे जिस तरह से देश की राजनीति के डायनेमिक्स को समझ रहे हैं, वह अद्वितीय है। फिर भी मुझे एक आधुनिक लोकतांत्रिक राजनीति के लिए पारिवारिक व्यवस्था अटपटी लगती है। मैं अटपटी इसलिए कह रहा हूँ कि ऐतिहासिक कारणों से यह व्यवस्था न सिर्फ मौज़ूद, बल्कि सफल है,  इसीलिए यह आधुनिक भारत में कायम है। पर यह सिद्धांत और व्यवहार के बीच गहरी खाई को भी दर्शाती है। 

कांग्रेस के अतीत में ज्यादा गहराई से जाने की ज़रूरत नहीं, पर दिखाई पड़ता है कि यह पार्टी सत्ता में आने के बाद से अपने व्यवहार में बदल गई है। अब यह स्वतंत्रता से पहले वाली कांग्रेस नहीं है। कांग्रेस ही नहीं सारी पार्टियाँ पाखंडी लगती हैं। इनमें कम्युनिस्ट पार्टियाँ भी शामिल हैं। हाँ इतना है कि कम्युनिस्ट पार्टियों और भाजपा में आंतरिक लोकतंत्र एक हद तक कायम है। सभी पार्टियों में निश्छल, सरल और निस्वार्थी नेता और कार्यकर्ता भी हैं, पर वे धीरे-धीरे खत्म हो जाएंगे। कांग्रेस का आंतरिक लोकतंत्र बड़ा रोचक है। फैसला करने की घड़ी में पूरी पार्टी अंतिम निर्णय हाई कमान पर छोड़ देती है। ऐसा ही शेष गैर-कम्युनिस्ट पार्टियाँ करतीं हैं। 

कांग्रेस ने देश को सर्वश्रेष्ठ नेता दिए हैं। आज़ादी के पहले की सूची के बारे में कुछ कहने की ज़रूरत नहीं, पर आज़ादी के बाद 1959 में श्रीमती इंदिरा गांधी के आने के बाद गुणात्मक बदलाव हुआ। यों कांग्रेस के पास फिर भी कद्दावर नेता थे। इधर परिवार के बाहर कांग्रेस के सबसे बड़े नेता पीवी नरसिंह राव हुए, जिन्हें इस वक्त कांग्रेस याद करना नहीं चाहती। उनका दोष क्या श्रीमती सोनिया गांधी की उपेक्षा करना था? नरसिंह राव की कांग्रेस भी नेता से दबी पार्टी थी। उस वक्त भी सारे फैसले हाई कमान पर छोड़े जाते थे। उस दौरान पहली बार लम्बे अर्से बाद पार्टी के चुनाव हुए। वे चुनाव मंज़ूर नहीं हुए। दलितों और महिलाओं को उचित प्रतिनिधित्व न मिल पाने के कारण वे चुनाव रद्द हो गए। यानी पार्टी में सिद्धांत और व्यवहार का फासला बना रहा। 

इसकी वजह क्या हमारा समाज है जो आधुनिक नहीं हो पाया है? कम्युनिस्ट पार्टियों को देखिए, जिनके शिखर पर बैठे नेता जनता से अपेक्षाकृत कटे लोग हैं। उनकी असल योग्यता अंग्रेजी बोलना और बड़े उद्योगपतियों की पार्टियों में शामिल होना है, जो उनके सिद्धांत और व्यवहार से अटपटा है। सामाजिक न्यायवादी-लोहियावादी पार्टियों को देखिए। इनके नेताओं का भी वंशानुगत प्रभाव है। वे सामाजिक अन्याय के नाम पर आगे आए हैं, पर अपनी जाति से ज्यादा पिछड़ी जाति की उपेक्षा करते हैं। अपने जाति बंधुओं को अनन्त काल तक पिछड़ा बनाए रखने में भी वे अपना हित देखते हैं। वे सोचने-विचारने लगेंगे और फैसले करने लगेंगे तो नेता को बदलने की कोशिश भी करेंगे। 

जनसंघ या भाजपा का जन्म स्वच्छता और अनुशासनवादी पार्टी के रूप में हुआ। इस पार्टी पर हावी परिवार खानदानी नहीं वैचारिक है। यह संघ परिवार है। पूरे देश में राजनीति परिवारों के सहारे चल रही है। गांधी परिवार के बाद मुलायम परिवार, लालू परिवार, ठाकरे परिवार, बादल परिवार, पवार परिवार, वाईएसआर परिवार, करुणानिधि परिवार, शेख अब्दुल्ला परिवार, मुफ्ती मोहम्मद परिवार, मीर वाइज़ परिवार, पटनायक परिवार वगैरह। लोकल लेवल पर ऐसे परिवार पूरी व्यवस्था को चलाते हैं। 

कांग्रेस यदि अपने नेतृत्व संचालन की कोई व्यवस्था खोज सके तो दूसरी पार्टियों को भी अपनी व्यवस्थाएं  खोजनी होंगी। दरअसल देश की पूरी राजनीति कांग्रेस ने परिभाषित की है। असके समांतर कोई राजनीति निकली भी तो कांग्रेस की मोनोपली राजनीति या तो उसे खा गई या उसे कांग्रेसमय कर दिया। और कांग्रेस नेहरू-गांधीमय है। आज़ादी के 63 साल में कांग्रेस के 15 अध्यक्ष हुए। इनमें से चार नेहरू-गांधी परिवार से थे। ये चार इन 63 में से 30 साल अध्यक्ष रहे। बाकी 11 के लिए शेष 33 साल थे। 

देश की राजनीति अपने आप को जब परिवारों की जकड़बंदी से मुक्त करेगी उस दिन हम एक कदम आगे बढ़ेंगे। दूसरा कदम तब बढ़ेंगे जब हमारे नेता अंग्रेजी की जगह भारतीय भाषाओं को बोलते हुए आएंगे। 

फिलहाल कांग्रेस अध्यक्षों की सूची देखें जो मैने विकीपीडिया से ली है।

Name of PresidentLife SpanYear of PresidencyPlace of Conference
Womesh Chandra Bonnerjee29 December 1844- 19061885Mumbai
Dadabhai Naoroji4 September 1825- 19171886Calcutta
Badruddin Tyabji10 October 1844- 19061887Madras
George Yule1829–18921888Allahabad
Sir William Wedderburn1838–19181889Mumbai
Sir Pherozeshah Mehta4 August 1845- 19151890Calcutta
P. AnandacharluAugust 1843- 19081891Nagpur
Womesh Chandra Bonnerjee29 December 1844- 19061892Allahabad
Dadabhai Naoroji4 September 1825- 19171893Lahore
Alfred Webb1834–19081894Madras
Surendranath Banerjea10 November 1848- 19251895Pune
Rahimtulla M. Sayani5 April 1847- 19021896Calcutta
Sir C. Sankaran Nair11 July 1857- 19341897Amraoti
Ananda Mohan Bose23 September 1847- 19061898Madras
Romesh Chunder Dutt13 August 1848- 19091899Lucknow
Sir Narayan Ganesh Chandavarkar2 December 1855- 19231900Lahore
Sir Dinshaw Edulji Wacha2 August 1844- 19361901Calcutta
Surendranath Banerjea10 November 1825- 19171902Ahmedabad
Lalmohan Ghosh1848–19091903Madras
Sir Henry Cotton1845–19151904Mumbai
Gopal Krishna Gokhale9 May 1866- 19151905Benares
Dadabhai Naoroji4 September 1825- 19171906Calcutta
Rashbihari Ghosh23 December 1845- 19211907Surat
Rashbihari Ghosh23 December 1845- 19211908Madras
Pandit Madan Mohan Malaviya25 December 1861- 19461909Lahore
Sir William Wedderburn1838–19181910Allahabad
Pandit Bishan Narayan Dar1864–19161911Calcutta
Rao Bahadur Raghunath Narasinha Mudholkar1857–19211912Bankipur
Nawab Syed Muhammad Bahadur ?- 19191913Karachi
Bhupendra Nath Bose1859–19241914Madras
Lord Satyendra Prasanna SinhaMarch 1863- 19281915Mumbai
Ambica Charan Mazumdar1850–19221916Lucknow
Annie Besant1 October 1847- 19331917Calcutta
Pandit Madan Mohan Malaviya25 December 1861- 19461918Delhi
Syed Hasan Imam31 August 1871- 19331918Mumbai (Special Session)
Pandit Motilal Nehru6 May 1861- 6 February 19311919Amritsar
Lala Lajpat Rai28 January 1865- 17 November 19281920Calcutta (Special Session)
C. Vijayaraghavachariar1852- 19 April 19441920Nagpur
Hakim Ajmal Khan1863- 29 December 19271921Ahmedabad
Deshbandhu Chittaranjan Das5 November 1870- 16 June 19251922Gaya
Maulana Mohammad Ali10 December 1878- 4 January 19311923Kakinada
Maulana Abul Kalam Azad1888- 22 February 19581923Delhi (Special Session)
Mahatma Gandhi2 October 1869- 30 January 19481924Belgaum
Sarojini Naidu13 February 1879- 2 March 19491925Kanpur
S. Srinivasa IyengarSeptember 11, 1874- 19 May 19411926Gauhati
Dr. M A Ansari25 December 1880- 10 May 19361927Madras
Pandit Motilal Nehru6 May 1861- 6 February 19311928Calcutta
Pandit Jawaharlal Nehru14 November 1889- 27 May 19641929 & 30Lahore
Sardar Vallabhbhai Patel31 October 1875- 15 December 19501931Karachi
Pandit Madan Mohan Malaviya25 December 1861- 19461932Delhi
Pandit Madan Mohan Malaviya25 December 1861- 19461933Calcutta
Nellie Sengupta1886–19731933Calcutta
Dr. Rajendra Prasad3 December 1884- 28 February 19631934 & 35Mumbai
Pandit Jawaharlal Nehru14 November 1889- 27 May 19641936Lucknow
Pandit Jawaharlal Nehru14 November 1889- 27 May 19641936& 37Faizpur
Netaji Subhash Chandra Bose23 January 1897- 18 August 1945?1938Haripura
Netaji Subhash Chandra Bose23 January 1897- 18 August 1945?1939Tripuri(Jabalpur)
Maulana Abul Kalam Azad1888- 22 February 19581940-46Ramgarh
Acharya J.B. Kripalani1888- 19 March 19821947Delhi
Dr Pattabhi Sitaraimayya24 December 1880- 17 December 19591948 & 49Jaipur
Purushottam Das Tandon1 August 1882- 1 July 19611950Nasik
Pandit Jawaharlal Nehru14 November 1889- 27 May 19641951 & 52Delhi
Pandit Jawaharlal Nehru14 November 1889- 27 May 19641953Hyderabad
Pandit Jawaharlal Nehru14 November 1889- 27 May 19641954Kalyani
U N Dhebar21 September 1905- 19771955Avadi
U N Dhebar21 September 1905- 19771956Amritsar
U N Dhebar21 September 1905- 19771957Indore
U N Dhebar21 September 1905- 19771958Gauhati
U N Dhebar21 September 1905- 19771959Nagpur
Indira Gandhi19 November 1917- 31 October 19841959Delhi
Neelam Sanjiva Reddy19 May 1913- 1 June 19961960Bangalore
Neelam Sanjiva Reddy19 May 1913- 1 June 19961961Bhavnagar
Neelam Sanjiva Reddy19 May 1913- 1 June 19961962 & 63Patna
K. Kamaraj15 July 1903- 2 October 19751964Bhubaneswar
K. Kamaraj15 July 1903- 2 October 19751965Durgapur
K. Kamaraj15 July 1903- 2 October 19751966 & 67Jaipur
S. Nijalingappa10 December 1902- 9 August 20001968Hyderabad
S. Nijalingappa10 December 1902- 9 August 20001969Faridabad
Jagjivan Ram5 April 1908- 6 July 19861970 & 71Mumbai
Dr Shankar Dayal Sharma19 August 1918- 26 December 19991972- 74Calcutta
Dev Kant Baruah22 February 1914- 19961975- 77Chandigarh
Indira Gandhi19 November 1917- 31 October 19841978- 83Delhi
Indira Gandhi19 November 1917- 31 October 19841983 -84Calcutta
Rajiv Gandhi20 August 1944- 21 May 19911985 -91Mumbai
P. V. Narasimha Rao28 June 1921- 23 December 20041992 -96Tirupati
Sitaram KesriNovember 1919- 24 October 20001997 -98Kolkata
Sonia Gandhi9 December 1946-1998–presentKolkata

Thursday, September 2, 2010

देश की छवि कौन बिगाड़ता है?

इधर कॉमनवैल्थ खेलों को लेकर काफी फ़ज़ीहत हो रही है। ज्यादातर निर्माण कार्य़ समय से पीछे हैं। उनमें घपलों की शिकायतें भी हैं। हमारा अराजक मीडिया जब मैदान में उतरता है तो उसका एकसूत्री कार्यक्रम होता है। वह पिल पड़ता है। इसके बाद वह सब कुछ भूल जाता है। जब फ़जीहत ज़्यादा हो गई तो कुछ लोगों ने कहा, देश की प्रतिष्ठा के लिए कुछ कम करो। इसपर मीडिया अचानक खामोश हो गया।

यह सब मीडिया के लिहाज से ही नहीं हो रहा है। जिसे राष्ट्रीय प्रतिष्ठा कहते हैं वह दिखावटी चीज़ नहीं है। हम जापान के लोगों को कर्तव्यनिष्ठ मानते हैं, तो किसलिए? उन्होंने अपने मीडिया से इसका प्रचार तो नहीं किया। प्रतिष्ठा न तो प्रचार से मिलती है और न दुष्प्रचार से बिगड़ती है। हमारी छवि कहीं खराब हो रही है तो उसके सूत्र हमारे काम-काज के तरीके में ही छिपे हैं। उन्हें ठीक करने की ज़रूरत है।

कॉमनवैल्थ गेम्स के लिए पचास हजार करोड़ रुपए तक खर्च करने वाले देश में गरीबों के भोजन, गाँवों की सड़कों, स्कूलों और सरकारी अस्पतालों का क्या हाल है? इससे हमारी प्राथमिकताएं नज़र आती हैं। जो समाज अपने व्यवहार में असंतुलित है वह दुनिया में अच्छी छवि का हकदार क्यों है?

हिन्दुस्तान में प्रकाशित मेरा लेख पढ़ने के लिए कतरन पर क्लिक करें

Wednesday, September 1, 2010

बदलाव कहाँ से आता है?



सितम्बर 1982 में यूएसए टुडे की शुरुआत टीवी के मुकाबले अखबारों को आकर्षक बनाए रखने की एक कोशिश का हिस्सा थी। दुनिया का पहला पूरी तरह रंगीन अखबार शुरू में बाजीगरी लगता था, पर जल्द ही अमेरिका का वह नम्बर एक अखबार बन गया। आज भी वॉल स्ट्रीट जर्नल के बाद यह दूसरे नम्बर का अखबार है। खबर यह है कि यूएसए टुडे अब प्रिंट की तुलना में अपने डिजिटल संस्करण पर ज्यादा ध्यान देगा। इसके अलावा यह एक और मेकओवर की तैयारी कर रहा है। अखबार के वैब, मोबाइल, आई पैड और दूसरे प्लेटफॉर्म बदले जाएंगे। सर्कुलेशन, फाइनेंस और न्यूज़ के विभागों में बड़े बदलाव होंगे। पिछले हफ्ते अखबार के कर्मचारियों को दिखाए गए एक प्रेजेंटेशन में नए विभागों की योजना बताई गई। यह भी स्पष्ट है कि इस काम में 130 कर्मचारियों की छँटनी की जाएगी।

यूएसए टुडे के बारे में हम अपने संदर्भों में सोचें तो चिंता की बात नहीं है। भारत में डिजिटल अखबारों का दौर कुछ साल बाद की बात है। पर साफ है कि यह दौर भारत में भी आएगा। हमारे यहाँ जो कुछ होता है वह अमेरिका की नकल में होता है। अधकचरा होता है। अखवार की स्वामी गैनेट कम्पनी ने यह भी स्पष्ट किया है कि हम अपने रेवेन्यू को बढ़ाने के प्रयास में पत्रकारीय-प्रतिबद्धता से पीछे नहीं हटेंगे। इस बात को कहा जाय या न कहा जाय पर अमेरिका में आज भी अखबार के स्वामी अपने धंधे का गुणगान उतने खुले ढंग से नहीं करता जितने खुले अंदाज़ में हमारे यहाँ होता है।

बदलाव एक मनोदशा का नाम है। उसे समझने की ज़रूरत है। बदलाव हमें आगे भी ले जा सकता है और पीछे भी। एक मोहरा हटाकर उसकी जगह दूसरा मोहरा रखना भी बदलाव है, पर महत्वपूर्ण है मोहरे की भूमिका। पिछले कुछ साल से मुझे नए एस्पायरिंग पत्रकारों में बुद्धिजीवियों और बौद्धिक कर्म के प्रति वितृष्णा नज़र आती है। पढ़ने-लिखने और ज्ञान बढ़ाने के बजाय कारोबारी शब्दावली का इस्तेमाल करने वाले लोगों की संख्या बढ़ रही है। इसके विपरीत सारे कथित बुद्धिजीवी और पुराने लोग भी दूध के धुले नहीं होते। उनका बड़ा तबका हर नई बात के प्रति शंकालु रहा है। उन्हें हर बात में साजिश नज़र आती है। अखबारों का रंगीन होना भी साम्राज्यवादी साजिश लगता है। इस द्वंद का असर अखबारों और मीडिया के दूसरे माध्यमों की सामग्री पर पड़ा है। बहुत से लोग इसके लिए बाज़ार को कोसते हैं, पर मुझे लगता है कि आज भी बाज़ार संजीदा और सरल पत्रकारिता को पसंद करता है और बाज़ीगरी को नापसंद। बाज़ार कौन है? हमारा पाठक ही तो हमारा बाज़ार है। वह छपाई और नई तकनीक को पसंद करता है, जो स्वाभाविक है। पर तकनीक तो फॉर्म है कंटेंट नहीं। रंग महत्वपूर्ण है यह यूएसए टुडे ने साबित किया।

1982 में यूएसए टुडे जब सामने आया तब उसने कंटेंट को बदल थोड़े दिया। सिर्फ उसे बेहतर तरीके से सजाया। मौसम जैसे उपेक्षित विषय की जानकारी और आर्थिक इंडिकेटरों को नया अर्थ दिया। उसके पहले मौसम की जानकारी यों ही दे दी जाती थी। यूएसए टुडे ने उसे बेहतर ग्रैफिक के साथ पेज एक पर एक खास जगह लगाया। अखबार के अलग-अलग सेक्शनों को अलग-अलग रंग की पहचान दी। पेज के बाईं ओर सार संक्षेप यानी रीफर शुरू किए। परम्परागत अखबारों से हटकर लीड खबर पेज पर दाईं ओर लगाना शुरू किया। सबसे रोचक थे यूएस टुडे स्नैपशॉट्स। ये कॉस्मेटिक बदलाव तो थे, पर सामग्री का मर्म पहले से बेहतर और साफ हुआ। यूएसए टुडे ने बदलाव की वह लहर शुरू की जिसने सारी दुनिया को धो दिया। इस बदलाव में न्यूयॉर्क टाइम्स जैसे अखबार देर से शामिल हुए। यूएसए टुडे के 15 साल बाद 1997 में न्यूयॉर्क टाइम्स रंगीन हुआ। भारत में हिन्दू ने अप्रेल 2005 में रिडिजाइन किया। यों इंटरनेट पर जाने वाला भारत का पहला अखबार हिन्दू था, जिसने 1995 में अपनी साइट लांच की। यह उसकी तकनीकी समझ थी।

बदलाव बंद दिमाग से किया जाय तो वह निरर्थक होता है। यूएसए टुडे ने शुरुआत में जितने तीखे रंग लगाए वे अब नहीं हैं। डिजाइन में पुरानेपन की भी वापसी हो रही है। आठ कॉलम के ग्रिड पर कायम रहना, ब्लैक एंड ह्वाइट स्पेस का ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल करना ताकि रंग बेहतर उभरें, बाद का विचार है। किसी चीज़ का प्रवेश भविष्य के बदलाव के रास्ते नहीं रोकता। पर कुछ चीजें ऐसी हैं, जो सैकड़ों साल तक नहीं बदलतीं। जैसे अखबारों के सम्पादकीय पेज। सम्पादकीय पेज की निरर्थकता का शोर तमाम दिलजले मचाते रहते हैं, पर इस पेज को खत्म नहीं कर पाते। इन दिनों हिन्दी के कुछ अखबार इस पन्ने में चाट-मसाला भरने की कोशिश करते नज़र आ रहे हैं। हो सकता है वे कोई नई चीज़ निकाल दें, पर अतिशय बदलाव अस्थिर दिमाग की निशानी है। मैग्जीनों के मास्टहैड पूरे पेज में फ्लोट करते रहे हैं, पर अखबारों के मास्टहैड में फॉण्ट और रंग तो तमाम बदले, पर पोजीशन नहीं बदल पाई।   

डिजाइन और कॉस्मेटिक्स से थोड़ा फर्क पड़ता है। असल चीज़ है जर्नलिज्म। देश के सबसे लोकप्रिय अखबारों का उदाहरण सामने है। टाइम्स ऑफ इंडिया, हिन्दू, टेलीग्राफ, इंडियन एक्सप्रेस, जागरण, भास्कर, मलयाला मनोरमा और आनन्द बाज़ार पत्रिका किसी न किसी मामले में लीडर हैं। इनके डिजाइन और कद को देखें। इनमें भास्कर ने हाल के वर्षों में डिजाइन और कंटेंट में कई प्रयोग किए हैं। शेष अखबार समय के साथ मामूली बदलाव करते रहे हैं, पर डिजाइन को लेकर बहुत चिंतित नहीं रहे। भास्कर का डिजाइन भी परम्परा के करीब है। जागरण शक्ल-सूरत से सामान्य लगता है, पर उसकी ताकत है सामान्य खबरें। न्यूज़ ऑफ द डे जागरण में होती है।

जो अखबार खबर को सादगी से देने के बजाय उसकी बाज़ीगरी में जुटते हैं, वे बुरी तरह पिटते हैं। सादा और सरल खबर लिखना मुकाबले बाज़ीगरी के ज्यादा मुश्किल काम है। दिक्कत यह है कि डिजाइन को स्वीकृति देने वाले लोगों का विज़न उस क्षण तक सीमित होता है, जिस क्षण वे डिजाइन देखते हैं। मसालेदार पकवान के मुकाबले सादा भोजन हमेशा फीका लगता है, फिर भी दुनिया में सबसे ज्यादा सादा भोजन ही खाया जाता है। हाल में अमर उजाला ने डिजाइन में बदलाव किया है, जो स्पेस मैनेजमेंट के लिहाज से आँख को कुछ खटकता है, पर पहले से सुथरा और बेहतर है। डिजाइन को कंटेंट की फिलॉसफी से जोड़ने के लिए एक बैचारिक अवधारणा भी किसी के पास होनी चाहिए। झगड़ा मार्केटिंग या सम्पादकीय का नहीं है। दोनों का उद्देश्य बाज़ार में सफल होना है। महत्वपूर्ण यह है कि हम पाठक के दिमाग को कितना समझते हैं। इसके लिए हमें भी तो खुद पाठक बनकर सोचना चाहिए।