Tuesday, June 11, 2013

कुंठित पितामह का अंतिम अस्त्र

सोमवार को जेडीयू के कुछ नेताओं की प्रतिक्रिया से यह बात समझ में आती है कि पिछले कुछ महीनों से चल रहे जेडीयू के मोदी विरोधी अभियान के पीछे भाजपा की वह वरिष्ठ टोली थी, जिसके शिखर पर लालकृष्ण आडवाणी है। शिवसेना की प्रतिक्रिया के पीछे भी पार्टी नेतृत्व का यथास्थितिवादी दृष्टिकोण था। सच यह है कि आडवाणी जी समय के साथ लड़ाई में हार चुके हैं। उनके पास 2009 में आखिरी मौका था, पर वे चमत्कार नहीं दिखा सके। इसके पहले 2004 के चुनाव में पार्टी की विफलता का श्रेय भी उन्हें दिया जाए तो गलत नहीं होगा। उनके सुझाव पर ही समय से पहले चुनाव हुए। शाइनिंग इंडिया उनका ही विचार था और अटल बिहारी वाजपेयी को कुर्सी खाली करने का दबाव भी उनकी ओर से था। उस चुनाव में पार्टी ने एक नहीं दो नेताओं को सामने रखने का फैसला किया था, जिससे वाजपेयी खिन्न थे। 

भारतीय जनता पार्टी का वर्तमान संकट इस अर्थ में अभूतपूर्व है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की चाबुक भी काम नहीं कर पा रही है। लालकृष्ण आडवाणी ने जून 2005 में पाकिस्तान की यात्रा के दौरान जिन्ना की तारीफ के प्रसंग में इस्तीफा देकर उतना अपमान महसूस नहीं किया जितना वे नरेन्द्र मोदी को चुनाव अभियान समिति का प्रमुख बनाए जाने पर महसूस कर रहे हैं। हालांकि मोदी को जो पद दिया गया है वह 2004 में प्रमोद महाजन को और 2009 में अरुण जेटली को दिया गया था। यह कहीं से भावी प्रधानमंत्री का संकेत नहीं देता। संयोग से भाजपा सरकार बनी तो आडवाणी जी का दावा उस वक्त भी उतना ही मजबूत होगा, जितना आज है। पर उन्हें लगता है कि बाज़ी हाथ से निकल चुकी है। यह इस्तीफा उनका आखिरी हथियार है।   

Monday, June 10, 2013

अब तो शुरू हुई है मोदी की परीक्षा

रविवार की शाम नरेन्द्र मोदी ने नए दायित्व की प्राप्ति के बाद ट्वीट किया : 'आडवाणी जी से फोन पर बात हुई. अपना आशीर्वाद दिया. उनका आशीर्वाद और सम्मान प्राप्त करने के लिए अत्यंत आभारी.' पर अभी तक आडवाणी जी ने सार्वजनिक रूप से मोदी को आशीर्वाद नहीं दिया है। यह व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं का टकराव है या कोई सैद्धांतिक मतभेद है? उमा भारती, सुषमा स्वराज और यशवंत सिन्हा ने सार्वजनिक रूप से मोदी को स्वीकार कर लिया है। इसके बाद क्या लालकृष्ण आडवाणी अलग-थलग पड़ जाएंगे? या राजनाथ सिंह उन्हें मनाने में कामयाब होंगे? और यह भी समझना होगा कि पार्टी किस कारण से मोदी का समर्थन कर रही है? 


भारतीय जनता पार्टी को एक ज़माने तक पार्टी विद अ डिफरेंस कहा जाता था। कम से कम इस पार्टी को यह इलहाम था। आज उसे पार्टी विद डिफरेंसेज़ कहा जा रहा है। मतभेदों का होना यों तो लोकतंत्र के लिए शुभ है, पर क्या इस वक्त जो मतभेद हैं वे सामान्य असहमति के दायरे में आते हैं? क्या यह पार्टी विभाजन की ओर बढ़ रही है? और क्या इस प्रकार के मतभेदों को ढो रही पार्टी 2014 के चुनाव में सफल हो सकेगी?

Sunday, June 9, 2013

धन-संचय के मामले में पार्टियों की पर्दादारी ठीक नहीं

देश के छह राजनीतिक दलों को नागरिक के जानकारी पाने के अधिकार के दायरे में रखे जाने को लेकर दो तरह की प्रतिक्रियाएं आईं हैं। इसका समर्थन करने वालों को लगता है कि राजनीतिक दलों का काफी हिसाब-किताब अंधेरे में होता है। उसे रोशनी में लाना चाहिए। वे यह भी मानते हैं कि राजनीतिक दल सरकार की ओर से अनेक प्रकार की सुविधाएं पाते हैं तो उन्हें ज़िम्मेदार भी बनाया जाना चाहिए। पर इस फैसले का लगभग सभी राजनीतिक दलों ने विरोध किया है। कांग्रेस के प्रमुख प्रवक्ता जनार्दन द्विवेदी ने कहा कि पार्टियां किसी कानून से नहीं बनी हैं। वे सरकारी सहायता से नहीं चलती हैं।

Thursday, June 6, 2013

आरटीआई पर पार्टियों ने लगाया 'पाखंड का पर्दा'

आरटीआई पर पार्टियों ने लगाया 'पाखंड का पर्दा'

 गुरुवार, 6 जून, 2013 को 07:23 IST तक के समाचार
भारत के मुख्य सूचना आयोग की पूर्ण बेंच ने छह राजनीतिक दलों को क्लिक करेंसूचना के अधिकार के दायरे में लाकर उस वैश्विक प्रवृत्ति की ओर कदम बढ़ाया है, जिसका उद्देश्य लोकतंत्र को पारदर्शी बनाना है.
पर प्रतिक्रिया में लगभग सभी दलों ने कहा है कि हम सरकारी संस्था नहीं हैं. यानी वे इसके मर्म से बचते हुए तकनीकी पहलुओं पर ज्यादा बात कर रहे हैं.
दुनिया के 70 से ज़्यादा देशों में नागरिकों को जानकारी पाने का अधिकार है. इनमें से 19 देशों में इस अधिकार का दायरा निजी संस्थाओं तक है.
मसलन दुनिया भर में दवा बनाने वाली कंपनियाँ अपनी दवाओं की बिक्री बढ़ाने के लिए डॉक्टरों की मदद लेती है. यह बात मरीज़ के हितों के खिलाफ जाती है.

डॉक्टर और मरीज़ का रिश्ता

अमरीका में कानूनी व्यवस्थाओं के तहत 15 कंपनियों ने इस जानकारी को सार्वजनिक करना शुरू किया है. फिजिशियंस पेमेंट सनशाइन ऐक्ट का उद्देश्य मरीज़ और इलाज़ करने वालों के बीच हितों के टकराव को साफ करने के लिए पारदर्शिता कायम करना है.

Monday, June 3, 2013

खेल को खेल ही रहने दो

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह यों भी कम बोलते हैं। बोलते भी हैं तो खेलों पर सबसे कम। पिछले हफ्ते जब उन्होंने कहा कि खेलों में राजनीति नहीं होनी चाहिए, तब यह बात समझ में आ जानी चाहिए थी कि सरकार ने इन दिनों चल रही खेल राजनीति को गम्भीरता से लिया है। प्रधानमंत्री के अलावा राहुल गांधी और सोनिया गांधी ने तकरीबन उसी समय क्रिकेट की सट्टेबाज़ी को लेकर अपना रोष व्यक्त किया। उसके दो-तीन दिन पहले ही बीसीसीआई अध्यक्ष एन श्रीनिवासन ने कहा था, मेरे पद छोड़ने का सवाल पैदा नहीं होता। मीडिया के कहने पर मैं पद थोड़े ही छोड़ दूँगा। पूरा बोर्ड मेरे साथ है। वास्तव में बोर्ड उनके साथ था। दो दिन बाद दिल्ली के एक अखबार ने लीड खबर छापी कि बीसीसीआई में राजनेता भरे पड़े हैं, पर कोई इस मामले में बोल नहीं रहा। इस खबर का असर था या कोई और बात थी कि बीसीसीआई में कांग्रेस से जुड़े राजनेताओं के बयान आने लगे। सबसे पहले ज्योतिरादित्य सिंधिया ने श्रीनिवासन के इस्तीफे की माँग की। इसके बाद दबाव डालने के लिए संजय जगदाले और अजय शिर्के के इस्तीफे हो गए। राजीव शुक्ला ने भी आईपीएल के कमिश्नर पद से इस्तीफा दिया। कहना मुश्किल है कि यह इस्तीफा दबाव डालने के लिए है या सोनिया गांधी के निर्देश पर है।
क्रिकेट की सट्टेबाज़ी की खबरों ने तीन काम किए हैं। एक तो खेलों के भीतर घुसी राजनीति का पर्दाफाश किया है। दूसरे पैसे के खुले खेल की ओर इशारा किया है। और तीसरे देश का ध्यान कोलगेट और सीबीआई की स्वतंत्रता हटा दिया है। संयोग है कि पिछले ढाई साल से भारतीय राजनीति में चल रहे हंगामें की शुरूआत कॉमनवैल्थ गेम्स की तैयारियों से हुई थी। सुरेश कलमाडी हमारे नए राष्ट्रीय हीरो थे, जिनकी खेल और राजनीति में समान पकड़ थी। भारतीय ओलिम्पिक संघ के अध्यक्ष कलमाडी के साथ कॉमनवैल्थ गेम्स ऑर्गनाइज़िंग कमेटी के सेक्रेटरी जनरल ललित भनोत और डायरेक्टर जनरल वीके वर्मा की उस मामले में गिरफ्तारी भी हुई थी। हमें लगता है कि कलमाडी के दिन गए। पर ऐसा हुआ नहीं। पिछले साल दिसम्बर में भारतीय ओलिम्पिक महासंघ (आईओए) के चुनाव में यह मंडली फिर से मैदान में उतरी। उधर अंतरराष्ट्रीय ओलिम्पक कमेटी (आईओसी) के एथिक्स कमीशन ने कलमाडी, भनोत और वर्मा को उनके पदों से निलंबित करने का सुझाव दिया। आईओए के अध्यक्ष पद के लिए हरियाणा के राजनेता अभय चौटाला का नाम तय हो चुका था। माना जाता था कि ललित भनोत चुनाव में नहीं उतरेंगे, पर अभय चौटाला ने राजनीति से उदाहरण दिया कि आरोप तो मुलायम सिंह यादव, लालू यादव और जे जयललिता पर भी हैं। ललित भनोत कहीं से दोषी तो साबित नहीं हुए हैं। बहरहाल वह चुनाव नहीं हुआ। अंतरराष्ट्रीय ओलिम्पक कमेटी (आईओसी) ने भारतीय ओलिम्पिक महासंघ की मान्यता खत्म कर दी। जिन दिनों क्रिकेट की सट्टेबाज़ी की खबरें हवा में थीं, उन्हीं दिनों आईओसी की एक टीम के साथ  खेलमंत्री जितेन्द्र सिंह की मुलाकात हुई और ओलिम्पिक में वापसी का रास्ता साफ हुआ। देश का शायद ही कोई खेल संघ हो जिसे लेकर राजनीतिक खींचतान न हो।
भारत की खेल व्यवस्था पर नज़र डालें तो आप पाएंगे कि सबसे ऊँचे पदों पर वे लोग बैठे हैं, जिनका खेल से वास्ता नहीं है। खेल संगठन पर जिसका एक बार कब्ज़ा हो गया, सो हो गया। पहले खेल संगठनों पर राजाओं-महाराजाओं का कब्ज़ा था। अब राजनेताओं का है। क्रिकेट ने फिक्सिंग शब्द को नए सिरे से परिभाषित किया और राजनीति में फिक्सरों का नया मुकाम बना दिया। सन 2011 के अगस्त में तत्कालीन खेल और युवा मामलों के मंत्री अजय माकन ने कैबिनेट के सामने एक कानून का मसौदा रखा। राष्ट्रीय खेल विकास अधिनियम 2011 के तहत खेल संघों को जानकारी पाने के अधिकार आरटीआई के अंतर्गत लाने का प्रस्ताव था। साथ ही इन संगठनों के पदाधिकारियों को ज्यादा से ज्यादा 12 साल तक संगठन की सेवा करने या 70 साल का उम्र होने पर अलग हो जाने की व्यवस्था की गई थी। यह कानून बन नहीं पाया। तब से अब तक इसके चौदह-पन्द्रह संशोधित प्रारूप बन चुके हैं, पर मामला जस का तस है। उसके पहले खेलमंत्री एमएस गिल यह कोशिश कर रहे थे कि खेलसंघों का नियमन किया जाए। इस मामले के कई जटिल पहलू हैं। खेलों में सरकारी हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए। केवल इसी नैतिक मूल्य के सहारे खेल संघों के पदाधिकारी सरकार के कानून बनाने के अधिकार को चुनौती देते हैं। अंतरराष्ट्रीय ओलिम्पिक महासंघ (आईओसी) का भी कहना है कि खेलों के मामले में सरकारी हस्तक्षेप हमें मंज़ूर नहीं है।
क्रिकेट में स्पॉट फिक्सिंग के नए खेल ने इसे सट्टेबाजी से और सट्टेबाज़ी ने इसे दूसरे अपराधों से जोड़ दिया है। इसमें काले धन का खेल भी है। दिक्कत यह है कि ऊँचे स्तर पर ऐसे लोग बैठे हैं जिनके हित बीसीसीआई और आईपीएल से जुड़े हैं। इसी तरह बीसीसीआई के अध्यक्ष के हित आईपीएल से जुड़े हैं। ऐसे में पारदर्शिता कैसे आएगी? भारतीय हॉकी की महा-दुर्दशा के तमाम कारणों में से एक यह भी है कि इसे देखने वाला कोई संगठन ही नहीं है। देश में दो संगठन हॉकी के नाम पर हैं। एक को अंतरराष्ट्रीय हॉकी महासंघ की मान्यता है तो दूसरे को देश की अदालत ने वैध संगठन माना है।
आईपीएल मैच खत्म होने के बाद रात में पार्टियाँ होती है। यह भी खिलाड़ियों के कॉण्ट्रैक्ट का एक हिस्सा है। इन पार्टियों में शराबखोरी और छेड़खानी की घटनाएं होने लगीं हैं। इस किस्म की पार्टियों में अक्सर मुक्केबाजी होती है। यह सिर्फ आईपीएल की बात नहीं है। भारतीय टेस्ट क्रिकेट टीम की बात भी है। कुल मिलाकर खेल और अपराध का यह गठजोड़ सांस्कृतिक पतन का कारण भी बन रहा है। भारतीय क्रिकेट टीम के पुराने खिलाड़ी और सांसद कीर्ति आजाद एक अर्से से इस बात को उठा रहे हैं कि आईपीएल क्रिकट नहीं है, बल्कि मनी लाउंडरिंग का जरिया बन गया है। यह सच है कि आईपीएल के कारण क्रिकेट की लोकप्रियता बढ़ी, खिलाड़ियों को पैसा मिला और नए खिलाड़ियों को विश्व प्रसिद्ध खिलाड़ियों के साथ खेलने का मौका मिला। दूसरी ओर इसने एक गलीज़ संस्कृति को जन्म दिया है। इसलिए ज़रूरी है कि इसपर सामाजिक निगरानी हो। अजय माकन कानून नहीं बनवा पाए। अलबत्ता वे खेलमंत्री पद से हट गए। यह जिम्मेदारी नए खेलमंत्री की है कि वे संसद के मार्फत खेलों पर सामाजिक निगरानी का इंतज़ाम करें।

बीसीसीआई भारतीय क्रिकेट टीम को तैयार करती है। टीम के साथ राष्ट्रीय प्रतिष्ठा जुड़ती है। उसके खाते आरटीआई के लिए खुलने चाहिए और आईपीएल के तमाशे को कड़े नियमन के अधीन लाया जाना चाहिए। ऐसा नहीं हुआ तो यह मामला सरकार के गले की हड्डी बन जाएगा। आईपीएल जैसी खेल संस्कृति को जन्म दे रहा है वह खतरनाक है। उससे ज्यादा खतरनाक है इसकी आड़ में चल रही आपराधिक गतिविधियाँ जिनका अभी अनुमान नहीं लगाया जा सकता है। दाऊद इब्राहीम जैसे माफिया भी इसके कारोबार की ओर मुखातिब हुए हैं। क्रिकेट की सट्टेबाज़ी के ताज़ा प्रकरण की गहराई से जाँच हो तो उसकी जड़ें बहुत दूर तक जाएंगी। यह जाँच खुलकर होनी चाहिए। दूसरी ओर खेल मैदान को खिलाड़ियों और खेल प्रेमियों तक सीमित रहने देना चाहिए। इसमें राजनीति के प्रवेश को रोकना चाहिए। सवाल यह नहीं है कि एन श्रीनिवासन हटेंगे या नहीं। उनके हटने का मतलब है उनके विरोधी गुट को बैठने की जगह मिलेगी। अनुभव यह है कि तकरीबन सारे गुट खेल के मैदान में गंदगी फैलाने का काम करते हैं। यह गंदगी दूर होनी चाहिए ताकि साफ-सुथरे मैदानों में साफ-सुथरे खेल हों। पर एक शंका फिर भी बाकी रह जाती है। कहीं यह क्रिकेट-कांड दूसरे मसलों से ध्यान हटाने की कोशिश तो नहीं?
सी एक्सप्रेस में प्रकाशित