Friday, December 6, 2013

सांप्रदायिक हिंसा निरोध कानून माने दुधारी तलवार

 शुक्रवार, 6 दिसंबर, 2013 को 11:43 IST तक के समाचार
मुजफ्फरनगर सांप्रदायिक दंगे
हाल ही में उत्तर प्रदेश के मुज़फ़्फ़रनगर में हुए सांप्रदायिक दंगों पर विचार-विमर्श के दौरान कुछ लोगों ने इस बात को उठाया था कि केंद्र सरकार ने सांप्रदायिक एवं लक्षित हिंसा निवारण विधेयक को पास कर दिया होता तो ये हिंसा नहीं हो पाती.
व्यावहारिक सच यह है कि इस कानून को पास कराना टेढ़ी खीर साबित हो सकता है. हाल में गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने संकेत दिया था कि सरकार ने इस कानून पर काम शुरू कर दिया है. अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री के रहमान ख़ान का कहना है कि इस मामले में आम सहमति बनाने की कोशिश हो रही है.
जेडीयू के नेता केसी त्यागी ने इस क्लिक करेंकानून का विरोध करने वालेनरेंद्र मोदी की आलोचना की है. क्या इससे यह निष्कर्ष निकाला जाए कि उनकी पार्टी इस विधेयक को पारित कराने में मदद करेगी? इस कानून का प्रारूप राष्ट्रीय विकास परिषद (एनएसी) ने तैयार किया है.
प्रस्तावित कानून के अंतर्गत केंद्र और राज्य सरकारों को ज़िम्मेदारी दी गई है कि वे अनुसूचित जातियों, जन जातियों, धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों को लक्ष्य करके की गई हिंसा को रोकने और नियंत्रित करने के लिए अपनी ताकत का इस्तेमाल करें. इस मसौदे में हिंसा की परिभाषा, सरकारी कर्मचारियों द्वारा कर्तव्य की अवहेलना की सज़ा और कमांड का दायित्व भी तय किया गया है.
राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी) ने 14 जुलाई 2010 को इस विधेयक का खाका तैयार करने के लिए एक प्रारूप समिति का गठन किया था और 28 अप्रैल 2011 की एनएसी की बैठक के बाद नौ अध्यायों और 135 धाराओं में इसे तैयार किया गया. 22 जुलाई 2011 को यह सरकार को सौंप दिया गया.

भारतीय तोपखाने की कहानी

डिफेंस मॉनिटर के दिसंबर-जनवरी अंक में 1971 के बांग्लादंश युद्ध की याद और उस साल वैश्विक परिदृश्य में भारत की बदली भूमिका का ज़िक्र है। इस अंक में भारत की सेना के आधुनिकीकरण से जुड़े तीन लेख महत्वपूर्ण हैं। एक है तोपखाने के आधुनिकीकरण से जुड़ा, दूसरा एरोस्पेस कमांड को लेकर जो भविष्य के युद्धों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगी। तीसरा लेख भारत के रक्षा उद्योग में विदेशी पूँजी के निवेश को लेकर है। एक और महत्वपूर्ण लेख पूर्व नौसेनाध्यक्ष अरुण प्रकाश का है जिसमें उन्होंने सलाह दी है कि सेना के मामलों को लेकर राजनीति क्यों नहीं होनी चाहिए। एक अन्य लेख पाकिस्तान के एटमी हथियारों की सुरक्षा को लेकर है। यह खतरा हमेशा बना रहता है कि ये हथियार कभी कट्टरपंथियों के हाथों में न चले जाएं। इनके अलावा पूर्व सेनाध्यक्ष जन वीपी मलिक की नई पुस्तक के अंश।

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Thursday, December 5, 2013

जनता वोट देने निकलती है तो क्यों?

 गुरुवार, 5 दिसंबर, 2013 को 09:24 IST तक के समाचार
छत्तीसगढ़, वोटर, मतदाता
दिल्ली विधानसभा चुनाव में मतदान 67 प्रतिशत के आस पास हुआ है. अनेक मतदान केंद्रों पर रात 9.30 बजे तक वोट पड़ते रहे. मतदान की समय सीमा शाम साढ़े पाँच बजे के बाद 1.72 लाख वोट पड़े. लगभग डेढ़ फीसदी वोट उन मतदाताओं का था, जो साढ़े पाँच बजे तक मतदान केंद्र के भीतर आ चुके थे.
दिल्ली के लिए यह मतदान नया कीर्तिमान है. इसके पहले हुए चार चुनावों में क्रमशः 57.8 (2008), 54.4 (2003), 49.0(1998) और 61.8(1993) प्रतिशत मतदान हुआ था. इस बार मिजोरम में 83 फीसदी, छत्तीसगढ़ में 77 फीसदी, मध्य प्रदेश में 76 और राजस्थान में 75 फीसदी मतदान जनता की हिस्सेदारी को साबित करता है.
पिछले साल उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, गोवा और कर्नाटक में ज्यादा मतदान हुआ. जातीय हिंसा और लंबे ब्लॉकेड के बावजूद मणिपुर में ऊँचा मतदान हुआ था.
अभी तक की परंपरा है कि हम भारी मतदान के मानये ‘एंटी इनकंबैंसी’ मानते थे. यानी कि सरकार से नाराज़गी. पर पिछले साल पंजाब और हिमाचल पर यह बात लागू नहीं हुई.
बुधवार की शाम दिल्ली में हुए भारी मतदान की खबर के बारे में दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित से पूछा गया तो उनका जवाब था कि यह लोकतंत्र के मज़बूत होने की निशानी है. लोकतंत्र की मजबूती एक सामान्य निष्कर्ष है.

Wednesday, December 4, 2013

बस्तर से दिल्ली तक का संदेश

पाँच राज्यों के विधान सभा चुनाव का दौर तकरीबन पूरा हो गया है. अब सिर्फ दिल्ली का चुनाव बचा है. चुनाव अगर खेल का मैदान हो तो इसे फाइनल और सेमी फाइनल की शब्दावली में बाँधने की कोशिश भी होती है. इस बार के चुनाव को इस रूपक से भी जोड़ा गया है. हरेक चुनाव कुछ न कुछ नया देकर जाता है. मिजोरम हो या राजस्थान चुनाव प्रक्रिया हमारे समाज पर गहरा असर छोड़कर जाती है. चुनाव अब हमारी संस्कृति का हिस्सा है. इस बार छत्तीसगढ़ में भारी मतदान ने साबित किया कि मुख्य धारा की राजनीति यदि नागरिकों के सबसे नीचे के तबकों से खुद को जोड़ेगी तो बदले में उसे जबरदस्त समर्थन मिलेगा. इन नागरिकों को कुछ बंदूकधारियों ने अपनी धारणाओं से प्रभावित किया था. यह प्रभाव अनायास नहीं था. उसके कारण भी थे. चुनाव के कारण यह बात भी सामने आई कि किस तरह हमारी विकास-नीति ने जनजातियों की अनदेखी की है. एक गलतफहमी यह है कि चुनाव पाँच साल बाद लगने वाला मेला है. वस्तुतः यह हमारे दैनिक जीवन को प्रभावित करने वाली प्रक्रिया है. इसलिए चुनाव हो जाने के बाद भी नागरिक या उसके प्रतिनिधियों का रिश्ता टूटना नहीं चाहिए. यह रिश्ता किस तरह बना रहेगा, इसपर विचार-मनन चल ही रहा है. इस चुनाव में नोटा बटन की शुरुआत हुई है. यह शुरुआत मात्र है. इसका व्यवहारिक मतलब अभी कुछ नहीं है, पर कुछ साल बाद यह बटन किसी और बटन का मार्ग-दर्शक बनेगा.

Tuesday, December 3, 2013

नेपाल में कट्टरपंथ की पराजय

नेपाल की संविधान सभा की 601 सीटों के लिए हुए चुनाव में किसी भी पार्टी को साफ बहुमत न मिल पाने के कारण संशय के बादल अब भी कायम हैं, पर इस बार सन 2008 के मुकाबले कुछ बदली हुई परिस्थितियाँ भी हैं। माओवादियों के दोनों धड़े किसी न किसी रूप में पराजित हुए हैं। पुष्प दहल कमल यानी प्रचंड की एकीकृत नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) तीसरे नम्बर पर रही है। वहीं उनके प्रतिस्पर्धी मोहन वैद्य किरण की भारत-विरोधी नेकपा-माओवादी और 33 अन्य दलों की चुनाव बहिष्कार घोषणा भी बेअसर रही। इसका मतलब है कि नेपाली जनमत शांतिपूर्ण तरीके से अपने लोकतंत्र को परिभाषित होते हुए देखना चाहता है। हालांकि नेपाल कांग्रेस और एमाले चाहें तो मिलकर सरकार बना सकते हैं। और अपनी मर्जी का संविधान भी तैयार कर सकते हैं। पर कोशिश होनी चाहिए कि बहु दलीय राष्ट्रीय सरकार बनाई जाए, क्योंकि देश को इस समय आम सहमति की ज़रूरत है। व्यवहारिक अर्थ में यह संसद भी है, पर वास्तव में यह संविधान सभा है। अभी इस मंच पर मतभेदों को राजनीतिक शक्ल नहीं देनी चाहिए। कोशिश होनी चाहिए कि फैसले आम राय से हों। इस बार पार्टियों ने विश्वास दिलाया है कि वे एक साल के भीतर देश को संविधान दे देंगी। यह तभी संभव है, जब वे अतिवादी रुख अख्तियार न करें।