Sunday, January 8, 2017

राष्ट्रीय सवालों का मध्यावधि जनादेश

फरवरी-मार्च में होने वाले पाँच राज्यों के विधानसभा चुनाव एक तरह से केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार के लिए मध्यावधि जनादेश का काम करेंगे। आमतौर पर विधानसभा चुनावों में स्थानीय मुद्दे ज्यादा महत्वपूर्ण होते हैं। खासतौर से नब्बे के दशक से राज्यों के स्थानीय नेतृत्व का उभार हुआ है, जिसके कारण राज्य-केंद्रित मसले आगे आ गए हैं। पर इसबार लगता है कि चुनाव राष्ट्रीय मुद्दों पर लड़ा जाएगी। मणिपुर को छोड़ दें तो शेष चारों राज्यों की राजनीति फिलहाल केंद्रीय राजनीति के समांतर चल रही है। इसकी एक वजह बीजेपी की मोदी-केंद्रित रणनीति भी है।

नरेंद्र मोदी की सन 2014 की सफलता का प्रभाव अब भी कायम है। उसकी सबसे बड़ी परीक्षा इसबार उत्तर प्रदेश में होगी, जो राष्ट्रीय राजनीति के लिहाज से देश का सबसे महत्वपूर्ण राज्य है। इन चुनावों के राष्ट्रीय महत्व की झलक उस प्रयास में देखी जा सकती है, जो एनडीए के समांतर एक राष्ट्रीय गठबंधन बनाने की कोशिश कर रहा है। इन चुनावों के ठीक पहले आम बजट पेश होने वाला है। इसे लेकर विरोधी दलों की लामबंदी उस प्रयास का एक हिस्सा है। यही वजह है कि बजट-विरोधी मुहिम में तृणमूल कांग्रेस और शिवसेना जैसी पार्टियाँ आगे हैं।

तीन सर्वे, तेरह नतीजे

चुनाव-सर्वेक्षणों की साख पर फिरता पानी
भारत के चुनाव सर्वेक्षणों का क्या रोना रोएं, इस बार तो अमेरिका के पोल भी असमंजस में रहे। हिलेरी क्लिंटन की जीत की आशा धरी की धरी रह गई। फिर भी पश्चिमी देशों के सर्वेक्षणों की साख बनी हुई है। हमारे यहाँ सर्वेक्षण मनोरंजन के लिए पढ़े जाते हैं, गंभीर विवेचन के लिए नहीं। इन चुनाव-पूर्व सर्वेक्षणों जैसी हवा सन 2015 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में निकली थी, वैसी कभी नहीं निकली होगी। पर ऐसा ज्यादातर होता रहा है जब तीन सर्वेक्षणों के तेरह तरह के नतीजे होते हैं और परिणाम फिर भी कुछ और आता है।
अक्सर होता रहा है कि कभी किसी सर्वेक्षण का अनुमान सही हुआ और कभी दूसरे का। पर कुल मिलाकर ज्यादातर सर्वे गलत साबित होते रहे हैं। लगता है कि भारतीय मतदाता के दिल और दिमाग का पता लगाने वाली कोई पद्धति अभी तक विकसित नहीं हुई है। पर उससे बड़ा सच यह है कि बार-बार गलत साबित होने के बाद भी सर्वे हो रहे हैं और टीवी स्टूडियो में बैठे एंकर इन नतीजों के आधार पर गर्दन उठाकर ऐसे सवाल करते हैं कि गोया वे किसी ध्रुव सत्य की घोषणा कर रहे हैं।

Friday, January 6, 2017

बजट का विरोध गैर-वाजिब है

भारतीय राजनीति में लोक-लुभावन घोषणाएं ऐसे औजार हैं, जिनका इस्तेमाल हरेक पार्टी करना चाहती है. पर दूसरी पार्टी को उसका मौका नहीं देना चाहती.
केंद्र सरकार ने इस साल सितंबर में सिद्धांततः फैसला कर लिया था कि अब से बजट तकरीबन एक महीना पहले पेश किया जाएगा. यह केवल इस साल की व्यवस्था ही नहीं होगी. भविष्य में वित्त वर्ष भी बदलने का विचार है.
चर्चा तो इस बात पर होनी चाहिए कि यह विचार सही है या गलत. पर हम चर्चा तो दूसरी बातों की सुन रहे हैं.

Thursday, January 5, 2017

इन चुनावों पर हावी रहेंगे राष्ट्रीय सवाल

यह साल सन 2019 के पहले चुनाव के लिहाज से सबसे महत्वपूर्ण साल है. चुनाव आयोग ने जिन पांच राज्यों में चुनाव की तारीखें घोषित की हैं उनके अलावा गुजरात और हिमाचल प्रदेश दो राज्य और बचे हैं, जहाँ साल के अंत में चुनाव होंगे. इस साल राष्ट्रपति और उप-राष्ट्रपति पद के चुनाव भी होने वाले हैं. इस लिहाज से चुनाव की जो बयार अब बहनी शुरू हुई है वह साल भर बहेगी. केवल बहेगी ही नहीं तमाम नेताओं का राजनीतिक भविष्य लिख कर जाएगी.

स्वाभाविक रूप से विधानसभा चुनाव स्थानीय मुद्दों पर होते हैं. चूंकि हर राज्य के अलग-अलग मसले हैं, इसलिए उनके आधार पर राष्ट्रीय स्तर पर एक राय नहीं बनाई जा सकती. फिर भी इस साल के चुनावों से जुड़े कुछ ऐसे सवाल हैं, जिनके जवाब सारे परिणाम आने के बाद ही मिलेंगे.

Sunday, January 1, 2017

इस साल राहें आसान होंगी

भारत के लिए गुजरा साल जबर्दस्त उठा-पटक वाला था। साल की शुरुआत पठानकोट पर हमले के साथ हुई और अंत विमुद्रीकरण और यूपी में सपा के पारिवारिक संग्राम के साथ हुआ। एक तरफ देश की सुरक्षा और विदेश नीति के सवाल थे, वहीं अर्थ-व्यवस्था और राजनीति में गहमा-गहमी थी। हमने पथरीला रास्ता पार कर लिया है। यह साल सफलताओं का साल साबित होने वाला है। अब राह आसान है और नेपथ्य का संगीत बदल रहा है।