Sunday, June 18, 2017

राष्ट्रपति चुनाव का गणित और अब तक के परिणाम

चुनाव का गणित

दल
विधायक
सांसद
वि.सभा वोट
संसदीय वोट
कुल वोट
प्रतिशत
कुल
4114
784
5,49,474
5,55,072
11,04,546
100
एनडीए
1691
418
2,41,757
2,95,944
5,37,683
48.64
यूपीए
1710
244
2,18,987
1,73,460
3,91,739
35.47
अन्य
510
109
71,495
72,924
1,44,302
13.06
उपरोक्त गणना सार्वजनिक मीडिया स्रोतों से प्राप्त जानकारी के आधार पर है। इसे मोटा अनुमान ही कहा जा सकता है। यह आधिकारिक डेटा नहीं है। इन संख्याओं का जोड़ लगाने के बाद भी लगभग 3 प्रतिशत वोटों की विसंगति है या उनका विवरण उपलब्ध नहीं है।


अब तक के चुनाव परिणाम

वर्ष
राष्ट्रपति
दूसरे नम्बर के प्रत्याशी
जीत का अंतर
1952
डॉ राजेन्द्र प्रसाद
केटी शाह
5,07,400
1957
डॉ राजेन्द्र प्रसाद
चौधरी हरि राम
4,59,698
1962
डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन
चौधरी हरि राम
5,53.067
1967
डॉ ज़ाकिर हुसेन
कोका सुब्बाराव
4,71,244
1969
वीवी गिरि
नीलम संजीव रेड्डी
4,20,077
1975
फ़ख़रुद्दीन अली अहमद
त्रिदिब चौधरी
7,65,587
1977
नीलम संजीव रेड्डी
निर्विरोध
-------------
1982
ज्ञानी जैल सिंह
हंसराज खन्ना
7,54.113
1987
आर वेंकटरामन
वीआर कृष्ण अय्यर
7,40,148
1992
डॉ शंकर दयाल शर्मा
जीजी स्वेल
6,75,864
1997
केआर नारायण
टीएन शेषन
9,56,290
2002
एपीजे अब्दुल कलाम
कैप्टेन लक्ष्मी सहगल
8,15,366
2007
श्रीमती प्रतिभा पाटील
भैरों सिंह शेखावत
3,06,810
2012
प्रणब मुखर्जी
पीए संगमा
3,97,776




राष्ट्रपति चुनाव का गणित और राजनीति

गुरुवार को राष्ट्रपति चुनाव की अधिसूचना जारी होने के साथ राजनीतिक गतिविधियाँ तेज हो गईं हैं। अब अगले हफ्ते यह तय होगा कि मुकाबला किसके बीच होगा। और यह भी कि मुकाबला होगा भी या नहीं। सरकार ने विपक्ष की तरफ हाथ बढ़ाकर इस बात का संकेत जरूर किया है कि क्यों न हम मिलकर एक ही प्रत्याशी का नाम आगे बढ़ाएं। बीजेपी अध्‍यक्ष अमित शाह ने प्रत्याशी चयन के लिए तीन सदस्यीय समिति का गठन किया है। समिति में वेंकैया नायडू, अरुण जेटली और राजनाथ सिंह शामिल हैं। इस समिति ने विपक्ष सहित ज्यादातर राजनीतिक दलों से बातचीत शुरू कर दी है।  

एनडीए ने सन 2002 में प्रत्याशी का निर्णय करने के लिए समिति नहीं बनाई थी, बल्कि प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने खुद कांग्रेस अध्यक्ष से मुलाकात की थी। उन्होंने एपीजे अब्दुल कलाम का नाम सामने रखकर ऐसी स्थिति पैदा कर दी, जिसे कांग्रेस नकार नहीं पाई थी। इसके विपरीत सन 2012 में कांग्रेस ने प्रणब मुखर्जी का नाम घोषित करने के बाद मुख्य विपक्षी दल भाजपा से सम्पर्क किया था। 

किसानों की बदहाली पर राजनीति

हाल में मंदसौर में हुए गोलीकांड के बाद ऐसा लग रहा है कि देश का किसान असंतुष्ट ही नहीं, बुरी तरह नाराज है। मंदसौर में जली हुई बसों की टीवी फुटेज को देखकर लगता है कि हाल में ऐसा कुछ हुआ है, जिसके कारण उसकी नाराजगी बढ़ी है। हाल में दो साल लगातार मॉनसून फेल होने के बावजूद किसान हिंसक नहीं हुआ। अब लगातार दो साल बेहतर अन्न उत्पादन के बावजूद वह इतना नाराज क्यों हो गया कि हिंसा की नौबत आ गई? किसानों की समस्याओं से इंकार नहीं किया जा सकता। पर कम से कम मंदसौर में किसान आंदोलन की राजनीतिक प्रकृति भी उजागर हुई है।

इसमें दो राय नहीं कि खेती-किसानी घाटे का सौदा बन चुकी है। उन्हें अपने उत्पाद का सही मूल्य नहीं मिल पाता। खेती से जुड़ी सामग्री खाद, कीटनाशक, सिंचाई और उपकरण महंगे हो गए हैं। कृषि ऋणों का बोझ बढ़ रहा है। प्राकृतिक आपदा के कारण नष्ट हुई खेती का न तो बीमा है और न सरकारी मुआवजे की बेहतर व्यवस्था। पर ये समस्याएं अलग-अलग वर्ग के किसानों की अलग-अलग हैं। इनपर राजनीतिक रंग चढ़ जाने के बाद समाधान मुश्किल हो जाएगा।    

Saturday, June 17, 2017

जस्टिस पीएन भगवती: जहांगीरी न्याय के पक्षधर

जस्टिस भगवती का सबसे बड़ा योगदान जनहित याचिकाएं हैं, जिन्हें उन्होंने परिभाषित किया थाजनता के बीच देश की न्याय-व्यवस्था की जो साख बनी है, उसे बनाने में जस्टिस पीएन भगवती जैसे न्यायविदों की बड़ी भूमिका है. वे ऐसे दौर में न्यायाधीश रहे जब देश को जबर्दस्त अंतर्विरोधों के बीच से गुजरना पड़ा. इसके छींटे भी उनपर पड़े. पर उनकी मंशा और न्याय-प्रियता पर किसी को कभी संदेह नहीं रहा.

भारतीय इतिहास में जिस तरह आम आदमी को जहांगीर ने न्याय की घंटियां बजाने का अधिकार दिया था, उसी तरह जस्टिस भगवती ने न्याय के दरवाजे हरेक के लिए खोले. उन्होंने सामान्य नागरिक को सार्वजनिक हित में देश की सर्वोच्च अदालत का दरवाजा खटखटाने की पैरोकारी की और जो अंततः अधिकार बना. 

इस वजह से याद रहेंगे भगवती
व्यवस्था को पारदर्शी बनाने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार  के बारे में उनकी सुस्पष्ट राय थी. सन् 1990 में आकाशवाणी पर डॉ राजेंद्र प्रसाद पर दिया गया व्याख्यान जिसने सुना है, उसे वे काफी देर तक याद रखेंगे. अलबत्ता उनका सबसे बड़ा योगदान जनहित याचिकाएं हैं, जिन्हें उन्होंने परिभाषित किया था. उनके दौर में लोक-अदालतों ने त्वरित-न्याय की अवधारणा को बढ़ाया.


सत्तर और अस्सी के दशक भारत में न्यायिक सक्रियता के थे. इस दौर में हमारी अदालतों ने सार्वजनिक हित में कई बड़े फैसले किए. दिसंबर, 1979 में कपिला हिंगोरानी ने बिहार की जेलों में कैद विचाराधीन कैदियों की दशा को लेकर एक याचिका दायर की. इस याचिका के कारण बिहार की जेलों से 40,000 ऐसे कैदी रिहा हुए, जिनके मामले विचाराधीन थे.
अदालतों की न्यायिक सक्रियता की वह शुरुआत थी.

सन् 1981 में एसपी गुप्ता बनाम भारतीय संघ के केस में सात जजों की बेंच में जस्टिस भगवती भी एक जज थे. उन्होंने अपना जो फैसला लिखा उसमें दूसरी बातों के अलावा यह लिखा कि यह अदालत सार्वजनिक हित में मामले को उठाने के लिए यह अदालत औपचारिक याचिका का इंतजार नहीं करेगी, बल्कि यदि कोई व्यक्ति केवल एक चिट्ठी भी लिख देगा तो उसे सार्वजनिक हित में याचिका मान लेगी.
इस फैसले ने पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन को परिभाषित कर दिया. बड़ी बात यह है कि इस व्यवस्था में भारी न्यायिक शुल्क को जमा किए बगैर सुनवाई हो सकती है. अस्सी के दशक के पहले तक न्याय के दरवाजे केवल उसके लिए ही खुले थे, जो किसी सार्वजनिक कृत्य से प्रभावित होता हो.


कोई तीसरा व्यक्ति सार्वजनिक हित के मामले को लेकर भी अदालत में नहीं जा सकता था. उस दौर मे जस्टिस पीएन भगवती और जस्टिस वीआर कृष्ण अय्यर जैसे न्यायाधीशों को न्याय के दरवाजे सबके लिए खोलने का श्रेय जाता है.


इस वजह से हुई थी आलोचना
जस्टिस भगवती को पीआईएल और लोक अदालतों के लिए तारीफ मिली तो इमर्जेंसी के दौर में इंदिरा गांधी की तारीफ और उनकी नीतियों के समर्थन की वजह से काफी आलोचना का सामना भी करना पड़ा. सन् 1976 के एडीएम जबलपुर मामले में सुप्रीम कोर्ट के जिन चार सदस्यों ने बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका को नामंजूर कर दिया था, उसमें एक जज वे भी थे. एचआर खन्ना अकेले जज थे, जिन्होंने सरकार के खिलाफ फैसला सुनाया.


भगवती पर ढुलमुल होने का आरोप था. इमर्जेंसी में उन्होंने इंदिरा गांधी की तारीफ की, जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद आलोचना. और जब इंदिरा की वापसी हुई तो उनकी फिर से तारीफ कर दी. शायद उन्हें अपनी गलती मानने में देर नहीं लगती थी. सन् 1976 के बंदी प्रत्यक्षीकरण मामले में उन्होंने अपनी गलती सन् 2011 में जाकर मान ली.


देश की न्यायिक व्यवस्था को लेकर उनकी राय काफी खुली हुई थी. जजों की नियुक्ति की कॉलेजियम व्यवस्था के पक्ष में वे नहीं थे. एक इंटरव्यू के जवाब में उन्होंने कहा, ‘मैं इसके पक्ष में नहीं हूं. मुझे हकीकत तो नहीं मालूम, लेकिन अफवाहों पर ध्यान दें तो कॉलेजियम में रखे जाने वाले न्यायाधीशों के बीच मोल-भाव होता है. लोग न्यायाधीशों की नियुक्ति के तरीके में भरोसा खोते जा रहे हैं. लिहाजा, इसे बदलना जरूरी हो गया है.’

फर्स्ट पोस्ट में प्रकाशित 

Friday, June 16, 2017

राष्ट्रपति चुनाव के पेचोख़म

राष्ट्रपति चुनाव में राजनीतिक शक्ति परीक्षण हो जाता है और गठबंधनों के दरवाजे भी खुलते और बंद होते हैं। गुरुवार को चुनाव की अधिसूचना जारी होने के साथ राजनीतिक गतिविधियाँ तेज हो गईं हैं। अब अगले हफ्ते यह तय होगा कि मुकाबला किसके बीच होगा। और यह भी कि मुकाबला होगा भी या नहीं। सरकार ने विपक्ष की तरफ हाथ बढ़ाकर इस बात का संकेत किया है कि क्यों न हम मिलकर एक ही प्रत्याशी का नाम आगे बढ़ाएं।

बीजेपी अध्‍यक्ष अमित शाह ने प्रत्याशी चयन के लिए तीन सदस्यीय समिति का गठन किया है। समिति में वेंकैया नायडू, अरुण जेटली और राजनाथ सिंह शामिल हैं। यह समिति विपक्ष सहित ज्यादातर राजनीतिक दलों से बातचीत करेगी। बुधवार को बीजेपी की समिति की बैठक हुई, जिसमें तय हुआ कि एनडीए के प्रत्याशी के नाम का ऐलान 23 जून को किया जाएगा। शुक्रवार को यह समिति कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से मुलाकात करेगी। इसके बाद मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) के महासचिव सीताराम येचुरी के साथ बातचीत होगी।